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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२१८ मत से भी सदोष नहीं है, तथापि यदि प्रतिभास का अर्थ ज्ञान सामान्य भी ले लिया जाय, तो भी कोई आपत्ति नहीं आती है। ऐसी अवस्था में अनुवाद पंक्ति १२ में 'और अनध्यवसारूप जो प्रतिभास है' के स्थान में 'और जो ज्ञान-सामान्य है' अर्थ करना चाहिए। पृष्ठ १९६
१५. शंका - 'असर्वज्ञानां व्याख्यातृत्वाभावे आपसन्ततेर्विच्छेदस्यार्थशून्याया वचनपद्धतेरार्ष त्वाभावात्' । यहां 'विच्छेदस्य' के स्थान में 'विच्छेद: ' पाठ अच्छा जंचता है। उससे वाक्य रचना भी ठीक हो जाती है। (जैन संदेश, १२ फरवरी १९४०)
समाधान - प्राप्त प्रतियों जो पाठ समुपलब्ध हुआ उसकी यथाशक्ति संगति अनुवाद में बैठा ली गई है । मूडबिद्री से भी उस पाठ के स्थान पर हमें कोई पाठान्तर प्राप्त नहीं हुआ । तथापि 'विच्छेदस्य' के स्थान पर 'विच्छेद: स्यात् ' पाठ स्वीकार कर लेने से अर्थ और अधिक सीधा और सुगम हो जाता है । तदनुसार उक्त शंकाका अनुवाद इस प्रकार होगा -
शंका - असर्वज्ञ को व्याख्याता नहीं मानने पर आर्ष-परम्परा का विच्छेद हो जायगा, क्योंकि, अर्थशून्य वचन-रचना को आर्षपना प्राप्त नहीं हो सकता है। पृष्ठ २१३
१६. शंका - संस्कृत (मूल) में जो ‘णवक' शब्द आया है उसका अर्थ आपने कुछ न करके 'नवक ' ही लिखा है । सो इसका क्या अर्थ है ? (नानकचंदजी, पत्र १-४-४०)
समाधान - 'नवक' का अर्थ नवीन है, इसलिए सर्वत्र नवीन बंधनेवाले समयप्रबद्ध को नवक समयप्रबद्ध कह सकते हैं। पर प्रकृत में विवक्षित प्रकृति के उपशमन और क्षपण के द्विचरमावली और चरमावली अर्थात् अन्त की दो आवलियों के काल में बंधने वाले समयप्रबद्ध को ही नवकसमयप्रबद्ध कहा है। इस नवकसमयप्रबद्ध का उस विवक्षित प्रकृति के उपशमन या क्षपणकाल के भीतर उपशम या क्षय होता है। एक समय कम दो आवलीकाल में उपशम या क्षय कैसे होता है, इसके लिए प्रथमभाग पृष्ठ २१४ का विशेषार्थ देखिये । विशेष के लिए देखिये लब्धिसार, क्षपणासार । पृष्ठ २५०
१७. शंका - शंका का प्रारंभ प्रथम पंक्ति में आये हुए 'तथापि' से जान पड़ता है, न कि उससे पूर्व के 'शरीरस्य स्थौल्यनिर्वर्तकं' इत्यादि से, क्योंकि उसी शास्त्रीय परिभाषा