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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२१७ पर अवधिज्ञान आदि की विशेषता के कारण उनकी गणना पूर्वविदों में न करके अवधिज्ञानी
आदि में की गई हो । इस प्रकार परिपाटी क्रम के बिना भगवान् महावीर के तीर्थकाल में हजारों द्वादशांगधारी मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती है। पृष्ठ ६८
१३. शंका - 'धदगारवपडिबद्धो' का अर्थ 'रसगारव के आधीन होकर' उचित नहीं जंचता । गारल (गारव ?) दोष का अर्थ मैंने किसी स्थान पर देखा है, किन्तु स्मरण नही आता । 'धद' का अर्थ रस भी समझ में नहीं आता । स्पष्ट करने की आवश्यकता है।
(जैन संदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान - 'गारव' पद का अर्थ गौरव या अभिमान होता है, जो तीन प्रकार का है -ऋद्धिगारव, रसगारव और सातगारव । यथा -
तओ गारवा पन्नत्ता । तं जहा - इडिगारवे रसगारवे सातागारवे । स्था.३,४
ऋद्धियों के अभिमान को ऋषिगारव, दधि दुग्ध आदि रसों की प्राप्ति से जो अभिमान हो उसे रसगारव, तथा शिष्यों व भक्तों आदि द्वारा प्राप्त परिचर्या के सुख को सातगारव या सुखगारव कहते हैं।
____ उक्त वाक्य से हमारा अभिप्राय 'रसादि गारव के आधीन होकर' से है । मूलपाठका संस्कृत रूपान्तर हमारी दृष्टि में 'धृतगारवप्रतिबद्धः' रहा है । प्रतियों में 'धद' के स्थान पर 'दध' पाठ भी पाया जाता है जिससे यदि दधिका अभिप्राय लिया जाय तो उपलक्षणा से रसगारव का अर्थ आ जाता है। पृष्ठ १४८
१४. शंका - प्रतिभास: प्रमाणश्चाप्रमाणश्च' इत्यादि वाक्य में प्रतिभास का अनध्यवसायरूप अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता । मेरी समझ में उसका अर्थ वहां ज्ञानसामान्य ही होना चाहिए, क्योंकि ज्ञान का प्रामाण्य और अप्रामाण्य बाझार्थ पर अवलम्बित है, अत: वह विसंवादी भी हो सकता है और अविसंवादी भी । अनध्यवसाय विसंवादी ज्ञान का भेद है । उसमें जिस तरह से विसंवादित्व और अविसंवादित्व की चर्चा दी गई है वह स्याद्वाद की दृष्टि के अनुकूल होते हुए भी चित्त को नहीं लगती।
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान - यद्यपि प्रतिभास का जो अर्थ किया गया है, वह स्वयं शंकाकार के