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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका पृष्ठ ४२
११. शंका - णमो अरिहंताणमिस्यत्र अरिमोहस्तस्य हननात् अरिहंता शेषघातिनामविनाभाविस्वात् अरिहंता इति प्रतिपादितम् । तदभीष्टमाचार्यैः । पुन:अस्वरसात् उच्चते वा 'रजो ज्ञानदृगावरणादयः मोहोऽपि रजः, तेपां हनानत् अरिहंता, इति लिखितम् तदत्र अरहंता इति पदं प्रतीयते । भवद्भिरपि श्रीमूलाचारदिग्रंथानां गाथाटिप्पण्णौ निम्ने लिखितं तत्र गाथायामपि अरहंत लिखितम् । आचार्याणामुभयमभीष्टं प्रतीयते णमो अरिहंताणं, णमो अरहंताण ' लिखितम्। इत्यत्र लेखकविस्मृतिस्तु नास्ति वान्यत् प्रयोजनम् ?
(पं.झम्मनलालजी, पत्र ४.१.४१) ___ अर्थात् धवलाकार ने णमोकारमंत्र के प्रथम चरण के जो विविध अर्थ किये हैं उनसे अनुमान होता है कि आचार्य को अरिहंत और अरहंत दोनो पाठ अभीष्ट हैं। किन्तु आपने केवल 'अरिहंता' पाठ ही क्यों लिखा ?
समाधान - णमोकारमंत्र के पाठ में तो एक ही प्रकार का पाठ रखा जा सकता है। तो भी ‘णमो अरिहंताणं पाठ रखने में यह विशेषता है कि उससे अरि+हंता और अर्हत् दोनों प्रकार के अर्थ लिये जा सकते हैं। प्राकृत व्याकरणानुसार अर्हत् शब्द के अरहंत, अरुहंत व अरिहंत तीनों प्रकार के पाठ हो सकते हैं। अतएव अरिहंत पाठ रखने से उक्त दोनों प्रकार के अर्थो की गुंजाइश रहती है । यह बात अरहंत पाठ रखने से नहीं रहती।
(देखो परिशिष्ट पृ.३८) १२. शंका - 'अपरिवाडीए पुण सयलसुदपारगा संखेज्जसहस्सा' । और यदि परिपाटी क्रम की अपेक्षा न की जाय तो उस समय संख्यात हजार सकल श्रुत के धारी हुए। भगवान् महावीर के समय में तो गिने चुने ही श्रुतकेवली हुए हैं। संख्यात हजार सकल श्रुत के धारियों का पता तो शास्त्रों से नहीं लगता । अत: यह अंश विचारणीय प्रतीत होता है। (पृष्ठ ६५)
(जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) ___ समाधान - त्रिलोकप्रज्ञप्ति, हरिवंशपुराण आदि में भगवान् महावीर के तीर्थकाल में पूर्व धारी ३००, केवलज्ञानी ७००, विपुलमती मन:पर्ययज्ञानी ५००, शिक्षक ९९००, अवधि ज्ञानी १३००, वैकियिकऋद्धिधारी ९०० और वादी ४०० बतलाये हैं। इनमें यद्यपि पूर्वधारी केवल तीन सौ ही बतलाये हैं, पर केवलज्ञानी केवलज्ञानोत्पत्ति के पूर्व श्रेणी-आरोहणकाल में पूर्वविद् हो चुके हैं और विपुलमती मन:पर्यायज्ञानी जीव तद्भव-मोक्षगामी होने के कारण पूर्वविद् होंगे । अवधिज्ञानी आदि साधुओं में भी कुछ पूर्वविद् हों तो आश्चर्य नहीं।