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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२१५ हुआ । वहां से च्युत हो पुन: पूर्व कोटी की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हआ और यथा संयम को धारक किया । जब उसके संसार में रहने का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह गया, तब पहले उपशमश्रेणी पर चढ़ा, पीछे क्षपक श्रेणी पर चढ़कर निर्वाण को प्राप्त हुआ। इसप्रकार से उपशमश्रेणी वाले जीवका उत्कृष्ट अन्तर आठ वर्ष और छव्वीस अन्तर्मुहूर्तों से कम तीन पूर्वकोटियों से अधिक छयासठ सागरोपकाल प्रमाण होता है ।
इस अन्तरकाल में रहते हुए भी वह बराबर सम्यग्दर्शन से युक्त बना हुआ है, भले ही प्रारम्भ में ३३ सागर तक क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी और बाद में क्षायिकसम्यक्त्वी रहा हो। इस प्रकार सम्यकदर्शनसामान्य की दृष्टि से साधिक छयासठ सागर की स्थिति का कथन युक्तिसंगत ही है और उसमें उक्त दोनों मतों से कोई विरोध भी नहीं आता है।
खदाबंध के कालानुयोगद्वार में भी सम्यक्त्वमार्गणा के अन्तर्गत सम्यक्त्वसामान्य की उत्कृष्ट स्थिति ६६ से सागर से कुछ अधिक दी है । यथा
__सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
(धवला.अ.प, ५०७) इस सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव तीनों क णों को करके प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण कर अन्तर्मुहूर्तकाल के बाद वेद सम्यक्त्व को प्राप्त होकर उसमें तीन पूर्व कोटियों से अधिक व्यालीस सागरोपम बिताकर बाद में क्षायिकसम्यक्त्व को धारणकर और चौबीस सागरोपम वाले देवों में उत्पन्न होकर पुन: पूर्वकोटि की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले जीव के साधिक ६६ सागर काल सिद्ध हो जाता है ।
किन्तु वेदसम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हुए पूरे ६६ सागर ही दिये हैं -
वेदगसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण छावहिसागरोवमाणि ।
(धवला. अ.प. ५०७) इस सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मनुष्यभव की आयु से कम देवायुवाले जीवों में उत्पन्न कराना चाहिए और इसी प्रकार से पूरे ६६ सागर काल वेदकसम्यकत्व की स्थिति पूरी करना चाहिए।
उक्त सारे कथन का भाव यह हुआ कि सम्यग्दर्शन सामान्य की अपेक्षा साधिक ६६ सागर, वेदकसम्यक्त्व की अपेक्षा पूरे ६६ सागर, और मंगलपर्याय की अपेक्षा देशोन ६६ सागर की स्थिति कही है, इसलिए उनमें परस्पर कोई मतभेद नहीं है।