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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २३४ उसका कारण यह है कि एक बार अनुत्तरादिक में जाकर आये हुए जीव के मनुष्यभव म क्षायिकसम्यकत्व की उत्पत्ति की भी संभावना है । पुन: क्षायिकसम्यक्त्व को प्राप्तकर संयमी हो अनुत्तरादिक में उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त हुआ। ऐसे जीव के साधिक छयासठ सागर काल बन जाता है, और क्षायोपशमिक से क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न कर लेने पर भी सम्यग्दर्शन सामान्य बराबर बना ही रहता है । इसकी पुष्टि जीवस्थान खंड की अन्तर प्ररूपणा के निम्न अवतरण से भी होती है : __ 'उक्कस्सेण छावट्टि सागरोवमाणि सादिरे याणि ॥ तं जहा - एको अट्ठावीससंतकम्मिओ पुव्वकोडाउअमणुसेसु उववण्णो अवस्सिओ वेदगसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो १ तदो पमत्तापमत्तपरा वत्तसहस्सं कादूण २ उवसमसेढीपाओग्गविसोहीए विसुद्धो ३ अपुव्वो ४ अणियट्टी ५ सुहुमो ६ उवसंतो ७ पुणो वि सुहुमो ८ अणियट्टि ९ अपुव्वो १० होदूण हेट्ठा पडिय अंतरिदो देसूणपुव्वकोडिं संजममणुपाले दूण मदो तेत्तीससागरोवमाउहिदीएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो । खइयं पि दृविय संजमं कादूण कालं गदो । तेत्तीससागरोवमाउहिदीएसु देवसु उववण्णो । ततो चुदो पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो संजमं पडिवण्णो । अंतो मुहुत्तावसेसे संसारे अपुव्वो जादो लद्धमंतरं ११ अणियट्टि १२ सुहुमो १३ उवसंतो १४ भुओ सुहुमो १५ अणियट्टि १६ अपुव्वो १७ अप्पमत्तो १८ पमत्तो जादो १९ अप्पमतो २० उवरि छ अंतोमुहत्ता अट्टहि वस्सेहि छन्वीसंतोमुहत्तेहि य ऊणा पुव्वाकोडीहि सादिरेयाणि छावहिसागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि' । यह विवरण उपशामक जीवों का एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल बताते हुए अन्तरप्ररूपणा में आया है । अर्थात् कोई एक जीवउपशमश्रेणी से उतरकर साधिक छयासठ सागर के बाद भी पुन: उपशमश्रेणीपर चढ़ सकता है । उक्त गद्य का भाव यह है : 'मोहकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव पूर्वकोटि की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और आठ वर्ष का होकर वेदकसम्यक्त्व और अप्रमत्त गुणस्थान को युगपत् प्राप्त हुआ। पश्चात् प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानों में कई वार आ जा कर उपशमश्रेणी पर चढ़ा और उतरकर आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूर्त कम पूर्व कोटि वर्ष तक संयम को पाल के मरणकर तेतीस सागर की आयु वाला देव हुआ । वहां से च्युत होकर पूर्वकोटि की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। यहाँ पर क्षायिक सम्यक्त्व को भी धारण कर तथा संयमी होकर मरा और पुन: तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देवों में उत्पन्न
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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