SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २१३ परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदो । .... एसो उप्पत्तिकमो अउप्पण्णउप्पायणंडं उत्तो । परमत्थदो पुण जेण केण वि पयारेण छावट्ठी पूरेदव्वा । अर्थात् - कोई एक निर्यच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपमकी आयुस्थिति वाले लान्तव कापिष्ठ कल्पवासी देवों में उत्पन्न हुआ । वहां पर एक सागरोपम काल बिताकर दसरे सागरोपम के आदि समय में सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और तेरह सागरोपम तक वहां रककर सम्यक्त्व के साथ ही च्युत होकर मनुष्य हो गया । उस मनुष्यभव में संयम को अथवा संयमासंयम को परिपालन कर इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयु से कम बाईस सागरोपम आयु की स्थिति वाले आरण-अच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ । वहां से च्युत होकर पुन: मनुष्य हुआ । इस मनुष्यभव में संयम को धारणकर उपरिम प्रैवेयक में मनुष्य आयु से कम इकतीस सागरोपम आयु की स्थिति वाले अहमिन्द्र देवों में उत्पन्न हुआ। वहां पर अन्तर्मुहुर्त कम छयासर सागरोपम के अन्तिम अव्युत्पन्नजनों के व्युत्पादनार्थ कहा है । परमार्थ से तो जिस किसी भी प्रकार से छयासठ सागरोपमकाल को पूरा करना चाहिए। सर्वार्थसिद्धिकार जो क्षायोपशमिकसम्यक्त्व की स्थिति पूरे ६६ सागर बता रहे हैं, यह षट्खंडागम के दूसरे खंड खुद्दाबंध के आगे बताये जाने वाले सूत्रों के अनुसार ही है, उस में धवला से कोई मतभेद नहीं है । भेद केवल धवला के प्रथम भाग पृ. ३९ पर बताई गई देशोन ६६ सागर की स्थिति से है । सो यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि धवलाकार बेदकसम्यक्त्व या सम्यक्त्वसामान्य की स्थिति नहीं बता रहे हैं, किन्तु मंगल की उत्कृष्ट स्थिति बता रहे हैं, और वह भी सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से, जिसका अभिप्राय यह समझ में आता है कि सम्यक्त्व होने पर जो असंख्यातगुणश्रेणी कर्म-निर्जरा सम्यक्त्वी जीव के हुआ करती है, उसी की अपेक्षा मं+गल अर्थात् पाप को गलानेवाला होने से वह सम्यक्त्व मंगलरूप है, ऐसा कहा गया है । किन्तु जो जीव ६६ सागर पूर्ण होने के अन्तिम मुहूर्त में सम्यक्त्व को छोड़कर नीचे के गुणस्थानों में जा रहा है, उसके सम्यक्त्वकाल में होने वाली निर्जरा बंद हो जाती है, क्योंकि परिणामों में संक्लेश की वृद्धि होने से वह सम्यक्त्व से पतनोन्मुख हो रहा है । अतएव इस अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से कम ६६ सागर मंगल की उत्कृष्ट स्थिति बताई गई प्रतीत होती है। अब रही राजवार्त्तिक में बताये गये साधिक ६६ सागरोपमकाल की बात सो उस विषय में एक बात खास ध्यान देने की है कि राजवार्त्तिकार जो साधिक छयासठ सागर की स्थिति बता रहे हैं वह क्षायोपमिकसम्यक्त्व की नहीं बता रहे हैं किन्तु सम्यग्दर्शनसामान्य की ही बता रहे हैं, और सम्यग्दर्शन सामान्य की अपेक्षा वह अधिकता बन भी जाती है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy