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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २१२ भाव्यम्' ऐसा लिखा है । सोआपने यह कहां से लिखा है और क्यों लिखा है ? ___ (नानकचंद जी, प्रत्र १-४-४०) समाधान - केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाले जीवों की सबसे जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ (अरत्नि) और उत्कृष्ट अवगाहना पांच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण होती है। सिद्धजीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना इसीलिए पूर्वोक्त बतलाई है । इसके लिए त्रिलोकसार की गाथा १४१-१४२ देखिये । संस्कृत में साढ़े तीन को 'अर्धचतुर्य' कहते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर 'अर्धाष्ट ' के स्थान में 'अर्धचतुर्थ ' का संशोधन सुझाया गया है, वह आगमानुकूल भी है । 'अर्धाष्ट ' का अर्थ 'साढ़े सात ' होता है जो प्रचलित मान्यता के अनुकूल नहीं है । इसी भाग के पृष्ठ २८ की टिप्पणी की दुसरी पंक्ति में त्रिलोकप्रज्ञप्ति का जो उद्वरण (आहुठ्ठहत्थपहुदी) दिया है उससे भी सुझाए गये पाठ की पुष्टि होती है। पृष्ठ ३९ १०. शंका - धवलराज में क्षयोपशमसम्यक्त्व की स्थिति ६६ सागर से न्यून बतलाई है, जब कि सर्वार्थसिद्धि में पूरे ६६ सागर और राजवार्तिक में ६६ सागर से अधिक बतलाई है ? इसका क्या कारण है ! (नानकचंद जी, पत्र १-४-४१) समाधान - सर्वार्थसिद्धि में क्षायोपमिकसम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति पूरे ६६ सागर वा राजवर्तिक में सम्यग्दर्शनसामान्य की उत्कृष्ट स्थिति साधिक ६६ सागर और धवला टीका पृ. ३९ पर सम्यग्दर्शन की अपेक्षा मंगल की उत्कृष्ट स्थिति देशोन छयासठ सागर कही है। इस मतभेद का कारण जानने के पूर्व ६६ सागर किस प्रकार पूरे होते हैं, यह जान लेना आवश्यक है। धवलाकार ने जीवट्ठाण खंड की अन्तरप्ररूपणा में ६६ सागर की स्थिति के पूरा करने का क्रम इस प्रकार दिया है : एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा लंतव-काविठ्ठवासियदेवेसु चौदससागरोवमाउडिदिएसु उप्पण्णो । एक्कं सागरोवमं गमिय विदियसागरोवमादिसमए सम्मत्तं पडिवण्णो । तेरस सागरोवमाणि तत्थ अच्छिय सम्मत्तेण सह चुदो मणुसो जादो । तत्थ संजमं संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुसाउएणूण-चावीससागरोवममाउट्ठिदिएसु आरणच्चुददेवेसु उववण्णो। तत्तो चुदो मणुसो जादो । तत्थ संजममणुसारिय उवरिमगेवजे देवेसु मणुसाउगेणूणएक्कत्तीससागरोवमाउट्टिदीएस उववण्णो । अंतोमुहुत्तूणछावट्टिसागरोवमचरिमसमए
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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