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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २२० अनाहारक केवल विग्रह वाली गतियों में ही रहता है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पाणिकुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका, इन तीन गतियों के अन्तिम समय में भी जीव आहारक हो जाता है, क्योंकि, अन्तिम समय में उपपात क्षेत्र के प्रति होने वाली गति ऋजु ही रहती है । इस व्यवस्था को ध्यान में रखकर ही सर्वार्थसिद्धि में 'एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः' इस सूत्र की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि 'उपपादक्षेत्रं प्रति ऋज्व्यां गतौ आहारकः । इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारकः ।' पृष्ठ ३३२ २०. शंका - सूत्र नं. ९३ में 'सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइटि-संजदासंजदट्ठाणे णियम । पज्जत्तियाओ' पर आपने फुटनोट लगाकर "अत्र ‘संजद' इति पाठशेषः प्रतिभाति" ऐसा लिखा है । सो लिखना कि यह आपने कहां से लिखा है, और क्या मनुष्यनी के छठा गुणस्थान होता है ? आगे पृ. ३३३ पर शंका-समाधान में लिखा है कि स्त्रियों के संयतासंयत गुणस्थान होता है, सो पहले से विरोध आता है ? (नानकचंद जी, पत्र १.४.४०) "अत्र 'संजद' इति पाठ शेषः प्रतिभाति" यह सम्पादक महोदयों का संशोधन है। ऐसे संशोधन को मूलसूत्र का अर्थ करते समय नहीं जोड़ना उचित प्रतीत होता है । (जैन गजट, ३ जुलाई १९४०) समाधान - उक्त पाद-टिप्पण देने के निम्न कारण है - (१) आलापाधिकार में मनुष्य स्त्रियों के आलाप बतलाते समय सभी (चौदह) गुणस्थानों में उनके आलाप बतलाये हैं। (२) द्रव्यप्रमाणानुगम में मनुष्य स्त्रियों का प्रमाण कहते समय चौदहों गुणस्थानों की अपेक्षा से उनका प्रमाण कहा है । यथा - मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठीदव्वपमाणेण केवडिया, कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेहँदो, छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेतृदो ॥४८॥ पृ. २६०, मणुसिणीसु सासणसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति दव्वमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ ४९ ॥ पृ. २६१. (३) आगम में मनुष्य के सामान्य, पर्याप्त, योनिमती और अपर्याप्त, ये चार भेद किये हैं। वहां योनिमती मनुष्य से भाव स्त्रीवेदी मनुष्यों काही ग्रहण किया है । षट्खंडागम में उसी भेदके लिये मणुसिणी शब्द आया है, और उन्हीं भेदों के क्रम से वर्णन भी है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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