________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२०२ प्रकृतिबंध अधिकार की समाप्ति के पश्चात् महाधवल में ग्रंथरचना इस प्रकार है‘णमो अरहंताणं ' इत्यादि
एत्थो ठिदिबंधो दुविधो, मूलपगदिठिदिबंधो चेव उत्तरपगडिठिदिबंधे चेव । एत्थो मूलपगडिठिदिबंधो पुव्वगमणिज्जो । तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति। तं जहा-ठिदिबंधठापणपरूवणा, णिसेयपरूवणा अद्धाकंडयपरूवणा अप्पाबहुगेत्ति । ...... एवं भूयो ठिदिअप्पाबहुगं समत्तं । वं मूलपगदिठिदिबंधो (धे) चउव्वीसमणियोगद्दारं समत्तं
भुजगारबंधेत्ति । ...........
'इस प्रकार भुजगारबंध प्रारंभ होकर काल, अन्तर इत्यादि अल्पबहुत्व तक चला गया है।'
एवं जीवसमुदाहतेत्ति समत्तमणियोगद्दाराणि । एवं ठिदिबंधं समत्तं ।
बंधविधान के इस स्थितिबंधनामक द्वितीय प्रकार का भी कुछ परिचय धवला प्रथम भाग से मिलता है । पृ.१३० पर कहा गया है -
द्विदिबंधो दुविहो, मूलपयडिट्ठिबंधो उत्तरपयडिट्ठिदिबंधो चेदि । तत्थ जो सो मूलपयडिट्ठिदिबंधो सो थप्पो । जो सो उत्तरपयडिट्ठिदिबंधो तस्स चउवीस अणियोगद्दाराणि। तंजहा-अद्धाछेदो, सव्वबंधो...... इत्यादि ।
__ यहां स्थितिबंध के मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति, इस प्रकार दो भेद करके उनमें से प्रथम को अप्रकृत होने के कारण छोड़कर प्रस्तुतोपयोगी द्वितीय भेद के चौबीस अनुयोगद्वार बतलाये गये हैं। इनसे पूर्वोक्त महाधवल की रचना के महाबंध से संबंध की सूचना मिलती
यह स्थितिबंध ताड़पत्र ५१ से ११३ अर्थात् ६३ पत्रों में समाप्त हुआ है।
इनसे आगे महाधवल में क्रमश: अनुभागबंध और फिर प्रदेशबंध का विवरण पाया जाता है । यथा
एवं जीवसमुदाहरेत्ति समत्तमणियोगद्दाराणि । एवं उत्तरपगदिअणुभागबंधो समत्तो। एवं अणुभाग-बंधो समत्तो । ......
जो सो पदेसबंधो सो दुविधो, मूलपगदिपदेसबंधो चेव उत्तरपगदिपदेसबंधो चेव। एत्तो मूलपयदिपदेसबंधो पुव्वं गमणीयो भागाभागसमुदाहारो अढविधबंधगस्स आउगभावो।