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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२०३ एवं अप्पाबहुगं समत्तं । एवं जीवसमुदाहारेत्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं पदेसंबंधं समत्तं । एवं बंधविधाणेत्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं चदुबंधो समत्तो भवदि ।
अनुभागबंध ताड़पत्र ११४ से १६९ अर्थात् ५६ पत्रों में, व प्रदेशबंध १७० से २१९ अर्थात् ५० पत्रों में समाप्त हुआ है।
यहीं महाधवल प्रति की ग्रंथरचना समाप्त होती है । इस संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि महाधवल की प्रति के उत्तर भाग में बंधविधान के चारों प्रकारों-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का विस्तार से वर्णन है, तथा उनके भेद-प्रभेदों व अनुयोगद्वारों का विवरण धवलादि ग्रंथों में संकेतित विषय-विभाग के अनुसार ही पाया जाता है । अतएव यही भूतबलि आचार्यकृत महाबंध हो सकता है। दुर्भाग्यत: इसके प्रारंभ का ताड़पत्र अप्राप्य होने से तथा यथेष्ट अवतरण न मिलने से जितनी जैसी चाहिये उतनी छानबीन ग्रंथ की फिर भी नहीं हो सकी । तथापि अनुभागबंध -विधान की समाप्ति के पश्चात् प्रति में जो पांच छह कनाडी के कंद-वृत्त पाये जाते हैं, उनमें सेएक शास्त्रीजी ने पूरा उद्धृत करके भेजने की कृपा की है, जो इसप्रकार है -
सकलधरित्रीविनुतप्रकटितयधीशे मल्लिकब्बे बरेसि सत्पु - ण्याकर-महाबंधद पुस्तकं श्रीमाघनंदिमुनिगळि गित्तळ्
इस पद्य में कहा गया है कि श्रीमती मल्लिकाम्बा देवी ने इस सत्पुण्याकर महाबंध की पुस्तक को लिखाकर श्रीमाघनन्दि मुनि को दान की। यहां हमें इस ग्रन्थ के महाबंध होने का एक महत्वपूर्ण प्राचीन उल्लेख मिल गया । शास्त्रीजी की सूचनानुसार शेष कनाड़ी पद्यों में से दो तीन में माघनन्याचार्य के गुणों की प्रशंसा की गई है, तथा दो पद्यों में शान्तिसेन राजा व उनकी पत्नी मल्लिकाम्बा देवी का गुणगान है, जिससे महाबंध प्रति का दान करने वाली मल्लिकाम्बा देवी किसी शांतिसेन नामक राजा की रानी सिद्ध होती है । ये शान्तिसेन व माघनन्दि नि:संदेह वे ही हैं जिनका सत्कर्मपंजिका की प्रशस्ति में भी उल्लेख आया है । प्रति के अन्त में पुन: ५ कनाड़ी के पद्य हैं जिनमें से प्रथम चार में माघनन्दि मुनीन्द्र की प्रशंसा की गई है व उन्हें 'यतिपति' 'व्रतनाथ' व 'व्रतिमति' तथा 'सैद्धान्तिकाग्रेसर' जैसे विशेषण लगाये गये हैं। पांचवें पद्य में कहा गया है कि रूपवती सेनवधू ने श्रीपंचमीव्रत