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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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इसके पश्चात् नाम और स्थापना निबंधन का स्वरूप बतलाया गया है और उसके पश्चात् द्रव्यनिबंधन का वर्णन इस प्रकार है -
जं दव्वं जाणि दव्वाणि अस्सिदूण परिणमदि, जस्स वा सद्दस्स (दव्वस्स) सहाधो दव्वंतरपडिबद्धो तं दव्वणिबंधणं । (धवला क. प्रति, पत्र १२६०)
प्रति में 'सहस्स' अशुद्ध है, वहां 'दव्वस्स' पाठ ही होना चाहिए। यहां वाक्य के ये शब्द 'जस्स वा दव्वस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो' ठीक वे ही हैं, जो पंजिका में भी पाये जाते हैं, और इन्हीं शब्दों का पंजिकाकार ने 'एत्थ जीवदव्वस्स सहावो णाणदंसणाणि' आदि वाक्यों में अर्थ किया है । यथार्थत: जितना वाक्यांश पंजिका में उद्धृत है, उतने परसे उसका अर्थ व्यवस्थित करना कठिन है । किन्तु धवला के उक्त पूरे वाक्य को देखने मात्र से उसका रहस्य एकदम खुल जाता है। इस पर से पंजिकाकार की शैली यह जान पड़ती है कि आधारग्रन्थ के सुगम प्रकरण को तो उसके अस्तित्व की सूचनामात्र देकर छोड़ देना, और केवल कठिन स्थलों का अभिप्राय अपने शब्दों में समझाकर और उसी सिलसिले में मूल के विवक्षितपदों को लेकर उनका अर्थ कर देना । इस पर से पंजिकाकार की उस प्रतिज्ञा का भी स्पष्टीकरण हो जाता है, जहां उन्होंने कहा है कि 'तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुद्वयेण पंचियसरूवेण भणिस्सामो' अर्थात् उन अठारह अनुयोगद्वारों का विषय बहुत गहन होने से हम उनके अर्थ की दृष्टि से विषमपदों का व्याख्यान करते हैं, और ऐसा करने में मूल के केवल थोड़े से उद्वरण लेंगे। यही पंचिकाका स्वरूप है । मूलग्रन्थ के वाक्यों को अपनी वाक्यरचना में लेकर अर्थ करते जाना अन्य टीकाग्रन्थों में भी पाया जाता है । उदाहरणार्थ, विद्यानन्दिकृत अष्टसहस्री में अकलंकदेवकृत अष्टशती इसी प्रकार गुंथी हुई है। पंजिकाकी यह विशेषता है कि उसमें पूरे ग्रन्थ का समावेश नहीं किया जाता, केवल विषमपदों को ग्रहण कर समझाया जाता है ।
सत्कर्मपंचिका के उक्त अवतरण के पश्चात् शास्त्रीजी ने लिखा है
"इस प्रकार छह द्रव्यों के पर्यायान्तर कापरिणमन विधान- विवरण होने के बाद निम्न प्रकार प्रतिज्ञा वाक्य हैं -
संपहि पक्कामाहियारस्स उक्कस्सपक्कमदव्वस्स उत्तप्पाबहुगविचरणं कस्सामो | तं जहा; अप्पच्चक्खाणमाणस्स उक्कस्त्रपक्कमदव्वं थोवं । कुदो ?” इत्यादि ।
आगे चलकर कहा गया है -
चत्तारि आउगाणं णीचुश्चागोदाणं पुणो एक्कारसव-पयडीणं