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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१९६ परिणदसंसारिजीवो जीव-भव-खेत्त-पोग्गल-विवाइसरूवकम्मपोग्गले बंधियूण पच्छा तेहिं तो पुन्वुत्त-छन्विहफलसरूवपज्जायमणेयभेयभिण्णं संसरदो जीवो परिणमदि त्ति । एदेसिंपन्जायाणं परिणमणं पोग्गलणिबंधणं होदि। पुणो मुक्कजीवस्स एवं - विध- णिबंधणं णत्थि, किंतु सत्थाणेण पन्जायंतरं गच्छदि । पुणो -
जस्स वा दव्वस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो इदि ।
एदस्सत्थो-एत्थ जीवदव्वस्स सहावो णाणदंसणाणि । पुणो दुविहजीवाणं णाणसहावविवखिदजीवेहितो वदिरित्त - जीवपोग्गलादि- सव्वदव्वाणं परिच्छेदणसहावेण पज्जायंतरगमणणिबंधणं होदि । एवं दंसणं पि वत्तव्वं ।
यहां पंजिकाकार कहते हैं कि वहां पर अर्थात् उनके आधारभूत ग्रन्थ के अठारह अधिकारों में से प्रथमानुयोगद्वार निबंधन की प्ररूपणा सुगम है । विशेष केवल इतना है कि उस निबंधन का निक्षेप छह प्रकार से बतलाया गया है । उनमें तृतीय अर्थात् द्रव्यनिक्षेप के स्वरूप की प्ररूपणा में आचार्य इस प्रकार कहते हैं । जिसका खुलासा यह है कि यहां पुद्गलद्रव्य के अवलंबन से जीवद्रव्य के पर्यायोंमें-परिणमन विधान का कथन किया जाता है। जीवद्रव्य दो प्रकार का है, संसारी व मुक्त । इनमें मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से परिणत जीव संसारी है। वह जीवविपा की, भवविपा की, क्षेत्रविपा की और पुद्गलविपा की कर्मपुद्गलों को बांधकर अनन्तर् उनके निमित्त से पूर्वोक्त छह प्रकार के फलरूप अनेक प्रकार की पर्यायों में संसरण करता है, अर्थात् फिरता है । इन पर्यायों का परिणमन पुद्गल के निमित्त से होता है । पुन: मुक्तजीव के इस प्रकार का परिणमन नहीं पाया जाता है । किन्तु वह अपने स्वभाव से ही पर्यायान्तर को प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में 'जस्स वा दव्वस्स सहावो दव्वतंरपडिबद्धो इदि' अर्थात् 'जिस द्रव्य का स्वभाव द्रव्यान्तर से प्रतिबद्ध है' इति।
इस प्रकरण के मिलान के लिए हमने वीरसने स्वामी के धवलान्तर्गत निबन्धन अधिकार को निकाला । वहां आदि में ही निबंधन के छह निक्षेपों का कथन विद्यमान है और उनमें तृतीय हव्य निक्षेप का कथन शब्दशः ठीक वही है जो पंजिकाकारने अपने अर्थ देने से ऊपर की पंक्ति में उद्धृत किया है और उसी का उन्होंने अर्थ कहा है । यथा -
णिबंधणेत्ति अणियोगद्दारे णिबंधणं ताव अपयदणिबंधणणिराकरणटुं णिक्खिवियव्वं । तं जहाणामणिबंधणं, ठवणाणिबंधणं, दव्वणिबंधणं, खेत्तणिबंधणं, कालणिबंधणं, भावणिबंधणं चेदि छब्विइं णिबंधणं होदि ।