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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१९३ अच्छी प्रभावना हुई । इसका कुछ उल्लेख विळगी के शासन लेख में भी पाया जाता है, जो इस प्रकार है -
"कर्णाटक-सिद्धसिंहासनाधीश्वर-बल्लालरायं प्रार्थिसे श्री चारुकीर्तिपंडिताचार्यर् इंतु कीर्तियं पडेदर् "
तिवें रायननेंदु ने - लंबार्बिडे तन्न मंत्रजपविधियिनदं ॥ कुंबलकायिं सुळदु य - शं बडेदेसकक्के पंडितार्यने नोंतं ॥
दोरसमुद्र से चारुकीर्ति जी महाराज अपने शिष्यों सहित मूडबिद्री आये और उन्होंने वहां गुरुपीठ (भट्टारक गद्दी) स्थापित की, यहां आते समय उन्होंने पास ही नल्लूर ग्राम में भी भट्ठारक गद्दी स्थापित की थी, किन्तु वर्तमान में वहां कोई अलग भट्ठारक नहीं हैं, वहां के मठ का सब प्रबन्ध मूडबिद्री मठ से ही होता है । यह मूडबिद्री में भट्टारक गद्दी स्थापित होने का इतिहास है, जिसका समय सन् ११७२ ईस्वी बतलाया जाता है । तब से भट्टारकों का नाम चारुकीर्ति ही रखा जाता है, यद्यपि उसके साथ- साथ कुछ स्वतंत्र नामों, जैसे वर्धमानसागर, अनन्तसागर, नेमिसागर आदि का उल्लेख पाया जाता है । धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों की प्रतियां यहां धारवाड जिले के बंकापुर से लाई गई, ऐसी भी एक जनश्रुति है। इस मठ से दक्षिण कर्नाटक में जैन धर्म का खूब प्रचार व उन्नति हुई। वर्तमान में मठ की संपत्ति से वार्षिक आय लगभग दस हजार की है।'
महाबंध की खोज १. खोज का इतिहास
षट्खंडागम का सामान्य परिचय उसके पूर्व प्रकाशित भूमिका में दिया जा चुका है । वहां हम बतला आये हैं कि धरसेनाचार्य से आगम का उपदेश पाकर पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों ने उनकी छह खंडों में ग्रन्थरचना की, जिनमें से प्रथम पांच खंड उपलब्ध श्री धवल की प्रतियों के अन्तर्गत पाये जाते हैं और छठ खंड महाबन्ध के सम्बन्ध में धवल
१ देखो लोकनाथशास्त्रीकृत मूडविद्रय चरित (कनाड़ी) २. देखो प्रथम भाग, भूमिका पू. ६३ आदि, व द्वि भाग भूमिका पू. १५ आदि.