________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१९२
प्रसिद्ध हुआ । कनाड़ी में 'मूड' का अर्थ पूर्व दिशा होता है, और पश्चिम का वाचक शब्द 'पड्डू' है । यहां मूल्की नामक प्राचीन ग्राम पड्डबिदुरे कहलाता है, और उससे पूर्व में होने के कारण यह ग्राम मूडबिदुरे या मूडबिदिरे कहलाया | वंश और वेणु शब्द बांस के पर्यायवाची होने से इसका वेणुपुर अथवा वशपुर नाम से भी उल्लेखकिया गया है । अनेक व्रती साधुओं का निवासस्थान होने से इसका नाम व्रतिपुर या व्रतपुर भी पाया जाता है।
यहां की गुरुबसदि अपरनाम सिद्धान्त बसदि के सम्बन्ध में यह दंतकथा प्रचलित है कि लगभग एक हजार वर्ष पूर्व यहां पर बांसों का सघन वन था । उस समय श्रवणबेलगुल (जैनबिद्री) से एक निर्गथ मुनि यहां आकर पडुबस्ती नामक मंदिर में ठहरे । पडुबस्ती नामक प्राचीन जिनमंदिर अब भी वहां विद्यमान है, और उस मंदिर से सैकड़ौं प्राचीन शौच को गये थे तब उन्होंने एक स्थान पर एक गाय और व्याघ्र को परस्पर क्रीड़ा करते देखा, जिससे वे अत्यन्त विस्मित होकर उस स्थान की विशेषजांच पड़ताल करने लगे । उसी खोजबीन के फलस्वरूप उन्हें एक बांस के भिरे में छुपी हुई व पत्थरों आदि से घिरी हुई पार्श्वनाथ स्वामी की काले पाषाण की नौ हाथ प्रमाण खड्गासन मूर्ति के दर्शन हुए। तत्पश्चात् जैनियों के द्वारा उसका जीर्णोद्वार कराया गया, और उसी स्थान पर 'गुरुबसदि का निर्माण हुआ । उक्त मूर्ति के पादपीठपर उसके शक ६३६ (सन् ७१४) में प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख पाया जाता है। उसके आगे का गद्दीमंडप (लक्ष्मी मंडप) सन् १५३५ में चोलसेठी द्वारा निर्मापित किया गया था। इस बसदि के निर्माण का व्यय छह करोड़ रूपया कहा जाता है जिसमें संभवत: वहां की रत्नमयी प्रतिमाओं का मूल्य भी सम्मिलित होगा। इस मन्दिर के गुप्तगृहों में सुवर्णकलशों में 'सिद्ध रस' स्थापित है, ऐसा भी कहते हैं।
एक किंवदन्ती है कि होशल-नरेश विष्णुवर्धनने सन १९१७ में वैष्णव धर्म स्वीकार करके हलेबीडु अर्थात् दोरसमुद्र में अनेक जिन मन्दिरों का ध्वंस कर डाला व जैन धर्म पर अनेक अन्य अत्याचार किये । उसी समय एक भयंकर भूकंप हुआ और भूमि फटकर एक विशाल गर्त वहां उत्पन्न हो गया, जिसका संबंध नरेश के उक्त अत्याचारों से बतलाया जाता है । उनके उत्तराधिकारी नारसिंह और उनके पश्चात् वीर बलालदेव ने जैनियों के क्षोभ को शान्त करने के लिये नये मन्दिरों का निर्माण, जीर्णोद्वार, भूमिदान आदि अनेक उपाय किये । वीर बल्लालदेव ने तो अपने राज्य में शान्ति स्थापना के लिये श्रवणवेलगुल से भट्टारकं चारुकीर्तिजी पंडिताचार्य को आमंत्रित किया । वे दोरसमुद्र पहुंचे और उन्होंने अपनी विद्या व बुद्धि के प्रभाव से वहां का सब उपद्रव शान्त किया, जिससे जैन धर्म की