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मूडबिद्री का इतिहास
दक्षिण भारत का कर्नाटक देश जैन धर्म के इतिहास में अपना एक विशेष स्थान रखता है । दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अधिकांश सुविख्यात और प्राचीनतम ज्ञात आचार्य और ग्रंथकार इसी प्रान्त में हुए हैं। आचार्य पुष्पदन्त, समन्तभद्र, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, नेमिचन्द्र, चामुण्डराय आदि महान् ग्रंथकारों ने इसी भूभाग को अलंकृत किया था।
इसी दक्षिण कर्नाटक प्रान्त में ही मूडबिद्री नामका एक छोटा सा नगर है जो शताब्दियों से जैनियों का तीर्थक्षेत्र बना हुआ है। कहा जाता है कि यहां जैन धर्म का विशेष • प्रभाव सन् १९०० ईस्वी के लगभग होय्सल- नरेश बल्लालदेव प्रथम केसमय से बढा । तेरहवीं शताब्दिमें यहां के पार्श्वनाथ बसदि को तुलुव के आलूप नरेशों से राज्यसन्मान मिला । पन्द्रहवीं शताब्दि में विजय नगर के हिंदू नरेशों के समय इस स्थान की कीर्ति विशेष बढ़ी। शक १३५१ (सन् १५२९) के देवराय द्वितीय के एक शिलालेख में उल्लेख है कि वेणुपुर (मूडबिद्री) उसके भव्यजनों के लिये सुप्रसिद्ध है । वे शुद्ध चारित्र पालते हैं, शुभ कार्य करते हैं, और जैनधर्म की कथाओं का श्रवण करते हैं। यहां के स्थानीय राजा भैररस ने अपने गुरु वीरसेन मुनि की प्रेरणा से यहां के चन्द्रनाथ मंदिर को दान दिया था । सन् १४५१-५२ में यहां की होस बसदि (त्रिभुवन - तिलक - चूडामणि व बड़ा मन्दिर) का 'भैरादेवी मण्डप' नाम से प्रसिद्ध मुखमण्डप विजय नगर नरेश मल्लिकार्जुन इम्मडिदेवराय के राज्य में बनाया गया था । विरूपाक्ष नरेश के राज्य में उनके सामन्त विट्ठरस ओडेयरने सन् १४७२-७३ में इसी बसदि को भूमिदान दिया था। यहां सब मिलकर अठारह बसदि (जिनमन्दिर) हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध 'गुरु बसदि' है जहां सिद्धान्त ग्रंथों की प्रतियां सुरक्षित हैं और जिनके कारण वह 'सिद्धान्त बसदि' भी कहलाती है । यह नगर 'जैन काशी' नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां अब जैनियों की जनसंख्या बहुत कम रहगई है, किन्तु जैन संसार में इसका पावित्र्य कम नहीं हुआ। यहां की गुरुपंरपरा और सिद्धान्त-रक्षा के लिये यह स्थान जैन धार्मिक इतिहास में सदैव अमर रहेगा ।
मूडबिद्री के पंडित लोकनाथ जी शास्त्री ने मूडबिद्री का निम्न इतिहास लिखकर भेजने की कृपा की है। कनाड़ी भाषा में बांस को 'बिदिर' कहते हैं। बांसों के समूह को छेदकर यहां के सिद्धान्त मंदिर का पता लगाया गया था, जिससे इस ग्राम का 'बिदुरे' नाम
१ देखो Salatore's Mediaeval Jainism, P.351ff, and, Ancient Karnataka P. 410 - 11.