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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १७७ एक अलग भेद बताकर उसका एक दूसरे भेद के अन्तर्गत निर्देश करने से क्या विशेषता आई? फिर भी टीकाकार यह तो स्पष्ट बतलाते हैं कि दृष्टिवाद का जो विषय परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में अनुक्त रहा वह चूलिकाओं में संग्रह किया गया - __ 'इह चूला शिखरमुच्यते, यथा मेरौ चूला । तत्र चूला इब चूला । दृष्टिवादे परिकर्मसूत्र- पूर्वानुयोगेऽनुक्तार्थसंग्रहपरा ग्रंथपद्धतयः । .... एताश्च सर्वस्यापि दृष्टिवादस्योपरि किल स्थापितास्तथैव च पढ्यन्ते ।' (नन्दीसूत्र टीका) इससे तो जान पडता है कि उन्हें पूर्वो के भीतर बतलाने में कुछ गड़बड़ी हुई है । दिगम्बर मान्यता में पूर्वो के भीतर कोई चूलिकाएं नहीं दिखाई गई । उसके जो पांच प्रभेद बतलाये गये हैं उनका प्रथम चार पूर्वो से विषयका भी कोई सम्बंध नहीं है । वे जल, थल, माया, रूप और आकाश सम्बंधी इन्द्रजाल और मंत्र-तंत्रात्मक चमत्कार प्ररूपण करती हैं, तथा अन्तिम पांच पूर्वो के मंत्रतंत्रात्मक विषय की धारा को लिये हुए हैं। प्रत्येक चूलिका की पदसंख्या २०९८९२०० बतलाई है, जिससे उनके भारी विस्तार का पता चलता अब यहां पूर्वो के उन अंशों का विशेष परिचय कराया जाता है जो धवला जयधवला के भीतर ग्रथित हैं और जिनकी तुलना की कोई सामग्री श्वेताम्बरीय उपर्युक्त आगमों में नहीं पायी जाती । इनकी रचना आदि का इतिहास सत्प्ररूपणा की भूमिका में दिया जा चुका है जिसका सारांश यह है कि भगवान महावीर के पश्चात् क्रमश: अट्टाईस आचार्य हुए जिनका श्रुतज्ञान धीरे धीरे कम होता गया । ऐसे समय में दो भिन्न भिन्न आचार्यों ने दो भिन्न भिन्न पूर्वो के अन्तर्गत एक एक पाहुड का उद्धार किया। धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत और भूतबलिको जो श्रुत पढ़ाया उस पर से उन्होंने द्वितीय पूर्व आग्रयणी के एक पाहुड का उद्धार सूत्र रूप से किया । आग्रयणीपूर्व के अन्तर्गत निम्न चौदह 'वस्तु ' नामक अधिकार थे - पुव्वतं, अवरंत, धुव, अधुव, चयणलद्धी,अर्धवम, पणिधिकप्प,अट्ठ, भौम्म, वयदिय, सव्वट्ठ, कप्पणिजाण, अतीद-सिद्ध-बद्ध और अणागय-सिद्ध-बद्ध । ___हम ऊपर ही बतला ही आये हैं कि पूर्वो के प्रत्येक वस्तु में नियम से बीस बीस पाहुड रहते थे। अग्रायणी पूर्व की पंचम वस्तु चयनलब्धि के बीस पाहुडों में चौथे पाहुड का नाम कम्मपयडी था महाकम्मपयडी अथवा वेयणकसिणपाहुड १ था । इसी का उद्धार १ कम्भाणं पयडिसरूवं वण्णेदि, तेण कम्मपयडिपाहुडे त्ति गुणणामं । वेयणकसिणपाहुडे त्ति वि तस्स विदियं णाममत्थि। वेयणा कम्माणमुदयो तं कसिणं णिरवसेसं अदो वेयणकसिणपाहुडमिदिएदमवि गुणणाममेव (सं.प. पृ. १२४, १२५)
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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