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________________ १६९ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका उपर्युक्त श्वेताम्बर मान्यता का विषय समवायांग टीका से दिया गया है । उस पर से ऐसा ज्ञात होता है कि वहां विषय का अंदाज बहुत कुछ नाम की व्युत्पत्ति द्वारा लगाया गया है। धवलान्तर्गत विषय सूचना कुछ विशेष है । पर विषय निर्देश में शब्द भेद को छोड़ कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं है । अवन्ध्य और कल्याणवाद में जो नामभेद है, उसी प्रकार विषय सूचना में भी कुछ विशेष है | धवला मेंउसके अन्तर्गत फलित ज्योतिष और शकुनशास्त्र का स्पष्ट उल्लेख है जो अवन्धय के विषय में नहीं पाया जाता। उसी प्रकार बारहवें प्राणावाय पूर्व के भीतर धवला में कायचिकित्सादि अष्टांगायुर्वेद की सूचना स्पष्ट दी गई है, वैसी समवायांग टीका में नहीं पायी जाती । वहां केवल 'आयुपाणविधान' कहकर छोड़ दिया गया है। तेरहवें क्रियाविशाल में भी धवला में स्पष्ट कहा है कि उसके अन्तर्गत लेखादि बहत्तर कलाओं, चौसठ स्त्री कलाओं और शिल्पों का भी वर्णन है । यह समवायांग टीका में नहीं पाया जाता। परप्रमाण दोनों मान्यताओं में तेरह पूर्वो का तो ठीक एकसा ही पाया जाता है, केवल बारहवें पूर्व पाणावाय की पदसंख्या दोनों में भिन्न पाई जाती है । धवला के अनुसार उसका पदप्रमाण तेरह कोटि है जब कि समवायांग और नन्दीसूत्र की टीकाओं में एक कोटि छप्पन लाख (एकाकोटी षट्पञ्चाशच्च पदलक्षाणि) पाया जाता है। प्रथम नौ पूर्वो का विषय तो अध्यात्मविद्या और नीति-सदाचार से संबंध रखता है किन्तु आगे के विद्यानुवादादि पांच पूर्वो में मंत्र तंत्र व कला कौशल शिल्प आदि लौकिक विद्याओं का वर्णन था, ऐसा प्रतीत होता है । इसी विशेष भेद को लेकर दशपूर्वी और चौदहपूर्वी का अलग-अलग उल्लेख पाया जाता है । धवला के वेदनाखंड के आदि में जो मंगलाचरण है वह स्वयं इन्द्रभूति गौतम गणधरकृत और महाकम्मपयडिपाहुड के आदि में उनके द्वारा निबद्ध कहा गया है । वहीं से उठाकर उसे भूतबलि आचार्य ने जैसा का तैसा वेदनाखंड के आदि में रख दिया है, ऐसी धवलाकार की सूचना है । इस मंगलाचरण में ४४ नमस्कारात्मक सूत्र या पद हैं। इनमें बारहवें और तेरहवें सूत्रों में क्रम से दशपूर्वियों और चौदह पूर्वियों को अलग-अलग नमस्कार किया गया है, जिसके रहस्य का उद्घाटन धवलाकार ने इस प्रकार किया है - णमो दसपुब्वियाणं ॥ १२ ॥ एत्थ दसपुग्विणों भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होति । तत्थ एक्कारसंगाणि पढिऊण पुणो परियम्मसुत्तपढमाणियोगपुव्वगयचूलिया त्ति पंचहियाराणिबद्धदिट्टिवादे पढिजमाणे उप्पायपुव्वमादि कादूण पढंताणे दसफुव्वीविजापवादे समत्ते रोहिणी-आदिपंचसयमहाविजाई
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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