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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १७० अंगुट्ठपसेणादिसत्तसयदहरविजाहि अणुगयाओ किं भयवं आणवेवत्ति ढुक्कति । एवं दुक्काणं सव्वविजाणं जो लोभो गच्छदि सो भिण्णदसपुव्वी । जो पुण ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी हों तो सो अभिण्णदसपुव्वी णाम । तत्थ अभिण्णदसपुव्वीजिणाणं णमो - कारं करेभि त्ति ऊत्तं होदि । भिण्णदसपुव्वीणं कथं पडिणिवित्ती ? जिणसद्दाणुवक्त्तीदो, ण च तेसिं जिणत्तमत्थि, भग्गमहव्वएसु जिणत्ताणुक्वत्तीदो । णमो चोद्दसपुब्वियाणं ॥ १३॥ जिणाणमिदि एत्थाणुवट्टदे । सयलसुदणाणधारिणो चोदसपुग्विणो, तेसिं चोद्दसपुवीणं जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि। सेसहेट्ठिमपुवीणं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, तेसिं पि कदो चेव तेहिं विणा चोद्दसपुव्वा णुववत्तीदो । चोद्दसपुव्वस्सेव णामणिद्देसं कादूण किमढें णमोकारो कीरदे ? विजाणुपवादस्स समत्तीए इव चोद्दस्सपुव्वसमत्तीए वि जिणवयणपञ्चयदंसणादो । चोद्सपुपुव्यसमत्तीए को पच्चओ ? चोद्दसपुव्वाणि समाणिय रत्तिं काउस्सग्गेण ट्ठिदस्स पहादसमए भवणवासियवाणवेंतरजोदिसियकप्पवासियदेवेहि कयमहापूजा संखकाहलातूररवसंकुला । होदु एदेसु दोसु ट्ठाणेसु जिणवयणपच्चओवलंभो, जिणवयणत्तं पडि सव्वंगपुव्वाणि समाणाणि त्ति तेसिं सव्वेसिं णामणिद्देसं काऊण णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, जिणवयणत्तणेण सव्वंगपुव्वंम्हि सरिसत्ते संते वि विजाणुप्पवादलोगबिदुसाराणं महत्तमत्थि, एत्थेव देवपूजोबलंभादो । चोद्दसपुव्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवजदि, एसो एदस्स विसेसो । ___ यहां धवलाकार ने दशपूर्वियों और चौदहपूर्वियों को अलग अलग नाम निर्देशपूर्वक नमस्कार किये जाने कारण यह बतलाया है, कि जब श्रुतपाठी आचारांगादि ग्यारह श्रुतों को पढ़ चुकता है और दृष्टिवाद के पांच अधिकारों का पाठ करते समय क्रम से उत्पादादि पूर्व पढ़ता हुआ दशम पूर्व विद्यानुवाद को समाप्त कर चुकता है, तब उससे रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याएं और अनुष्ठप्रसेणादि सात सौ अल्प विद्याएं आकर पूछती हैं 'हे भगवन्, क्या आज्ञा है ? इस प्रकार सब विद्याओं के प्राप्त हो जाने पर जो लोभ में पड़ जाता है वह भिन्नदशपूर्वी कहलाता है, और जो उनके लोभ में न पड़कर कर्मक्षयार्थी बना रहता है वह अभिन्नदशपूर्वी होता है । ये अभिन्नदशपूर्वी ही 'जिन' संज्ञा को प्राप्त करते हैं और उन्हीं को यहां नमस्कार किया गया है। किन्तु जो महाव्रतों का भंग कर देने से जिन संज्ञा को प्राप्त नहीं कर पाते उन्हें यहां नमस्कार नहीं किया गया। आगे यह प्रश्न उठाया गया है कि जब दश और चौदह पूर्वियों को अलग-अलग नमस्कार किया तब बीच के ग्यारहपूर्वी, बारहपूर्वी और तेरहपूर्वियों को भी क्यों नहीं पूथक्
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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