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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
एदेसिं पुव्वाणं एवदिओ वत्थुसंगहो भणिदो । सेसाणं पुव्वाणं दस दस वत्थू पणिवयामि ॥ २॥ एक्वेक्aम्हि य वत्थू वीसं वीसं च पाहुडा भणिदा । विसम-समा हि य वत्थू सव्वे पुण पाहुडेहि समा ॥ ३ ॥
इनके अंक भी धवला में दिये हुये हैं जिन्हें हम निम्न तालिका द्वारा अच्छी तरह प्रकट कर सकते हैं ।
पूर्व १ २
३
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30
४
५ ६ ७ ८ ९ १० ११
थू १० १४ ८ १८ १२ १२ १६ २० ३० १५
१६
१२ १३ १४ कुल
१० १० १० १० १९५
पाहुड २०० २८० १६० ३६० २४० २४० ३२० ४०० ६०० ३०० २०० २०० २०० २०० ३९००
सव्व-वत्थु - समासो पंचाणउदिसदमेत्तो १९५ ।
सव्व
- पाहुड-समासो ति सहस्स - णव - सद- मेत्तो ३९०० ।
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जयधवला में यह भी बतलाया गया है कि एक-एक पाहुड के अन्तर्गत पुन: चौबीस चौबीस अनुयोगद्वार थे । यथा
सदेसु अत्थाहियारेसु एक्वेक्कस्य अत्थाहियारस्स वा पाहुडसण्णिदा वीस वीस अत्थाहियारा । तेसिं पि अत्थाहियाराणं एक्वेक्कस्स अत्थाहियारस्स चउवीसं चउवीसं अणिओगद्दाराणि सण्णिदा अत्थाहियारा ।
इससे स्पष्ट है कि पूर्वों के अन्तर्गत वस्तु अधिकार थे, जिनकी संख्या किसी विशेष नियम से नहीं निश्चित थी । किन्तु प्रत्येक वस्तु के अवान्तर अधिकार पाहुड कहलाते थे और उनकी संख्या प्रत्येक वस्तु के भीतर नियमत: बीस-बीस रहती थी और फिर एकएक पाहुड के भीतर चौबीस - चौबीस अनुयोगद्वार थे। यह विभाग अब हमारे लिये केवल पूर्वों की विशालता मात्र का द्योतक है क्योंकि उन वत्थुओं और उनके अन्तर्गत पाहुडों के अब नाम तक भी उपलब्ध नहीं हैं। पर इन्हीं ३९०० पाहुडों में से केवल दो पाहुडों का उद्धार षट्खंडागम और कसायपाहुड (धवला और जयधवला) के रूप में पाया जाता है जैसाकि आगे चलकर बतलाया जायेगा । उनसे और उनकी उपलब्ध टीकाओं से इस साहित्य की रचनाशैली व कथनोपकथन पद्धति का बहुत कुछ परिचय मिलता है ।