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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १६४ ४. अस्थिणात्थिप्पवायं (१८ वत्थू+ १० चूलिया) ४. अत्थिणत्थिपवादं (१८ वत्थू) ५. नाणप्पवायं (१२ वत्थू) ५. णाणपवादं (१२ वत्थू) ६. सच्चप्पवायं (२" ) ६. सच्चपवादं (१२") ७. आयप्पवायं (१६") ७. आदपवादं (१६") ८. कम्मप्पवायं (२०" ) ८. कम्मपवादं (२०") ९. पच्चक्खाणप्पवायं (२०") ९. पच्चक्खाणं (३०") १०. विज्जाणुप्पवायं (१५") १०. विज्जाणुवादं (१५" ) ११. अबंझं (१३") ११. कल्लाणवादं (१०") १२. पाणाऊ (१३" ) १२. पाणावायं (१०") १३. किरिआविसालं (३०") १३. किरियाविसालं (१०") १४. लोकविंदुसारं (२५") १४. लोकविंदुसारं (१०") दृष्टिवाद के इस विभाग का नाम पूर्व क्यों पड़ा, इसका समाधान समवायांग व नन्दीसूत्र की टीकाओं में इस प्रकार किया गया है - अथ किं तत् पूर्वगतं ? उच्यते । यस्मात्तर्थिकर: तीर्थप्रवर्त्तनाकाले गणधराणां सर्वसूत्राधारत्वेन पूर्व पूर्वगतं सूत्रार्थ भाषते तस्मात् पूर्वाणीति भणितानि । गणधरा: पुन: श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च । मतान्तरेण तु पूर्वगतसूत्रार्थ: पूर्वमर्हता भाषितो गणधरैरपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्व रचितं, पश्चादाचारादि । नन्वेवं यदाचारनिर्युक्तयामभिहितं 'सव्वेसिं आयारो पढमो' इत्यादि, तत्कथम् ? उच्यते । तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचनां प्रतीत्य भणितं पूर्व पूर्वाणि कुतानीति। (समवायांग टीका) इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थप्रवर्तन के समय तीर्थकर अपने गणधरों को सबसे प्रथम पूर्वगत सूत्रार्थ का ही व्याख्यान करते हैं, इससे इन्हें पूर्वगत कहा जाता है । किन्तु गणधर जब श्रुत की ग्रंथरचना करते हैं तब वे आचारादिक्रम से ही उनकी रचना व व्यवस्था करते हैं, और इसी स्थापना की दृष्टि से आचारांग की नियुक्ति में यह बात कही गई है कि सब श्रुतांगों में आचारांग प्रथम है । यथार्थत: अक्षर रचना की दृष्टि से पूर्व ही पहले बनाये गये।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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