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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१६३ . इस विवरण से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त बाबीस सूत्रों का चार प्रकार से अध्ययन या व्याख्यान किया जाता था । प्रथम परिपाटी छिन्नछेदनय कहलाती थी जिसमें सूत्रगत एक एक वाक्य, पद या श्लोक का स्वतंत्रता से पूर्वापर अपेक्षारहित अर्थ लगाया जाता था। यह परिपार्टी स्वसमय अर्थात् जैनियों में प्रचलित थी । दूसरी परिपाटी अछिन्नछेदनय थी जिसके अनुसार प्रत्येक वाक्य, पद या श्लोक का अर्थ आगे पीछे के वाक्यों से संबंध लगाकर बैठाया जाता था । यह परिपाटी आजीविक सम्प्रदाय में चलती थी तीसरा प्रकार त्रिकनय कहलाता था जिसमें द्रव्यार्थिक, पर्यायाथिक और उभयार्थिक व जीव, अजीव और जीवाजीव आदि उपर्युक्त त्रि- आत्मक व त्रिनय रूप से वस्तुस्वरूप का चिन्तन किया जाता था । पूर्वोक्तानुसार यह परिपाटी आजीवकों की थी। तथा जो वस्तुचिन्तन पूर्वकथित चार नयों की अपेक्षा से चलता था वह चतुर्नय परिपाटी कहलाती थी और वह जैनियों की चीज थी। इस प्रकार निरपेक्ष शब्दार्थ और चतुर्नय चिन्तन, ये दो परिपाटियां जैनियों की और सापेक्ष शब्दार्थ तथा त्रिकन्य चिनतन, ये दो परिपाटियां आजीविकों की मिलकर बाबीस सूत्रों के अठासी भेद कर देती थीं। आजीविक ज्ञानशैली को जैनियों ने किस प्रकार अपने ज्ञानभंडार में अन्तर्भूत कर लिया यह यहां भी प्रकट हो रहा है। . दिगम्बर सम्प्रदाय में सूत्रों के भीतर प्रथम जीव का नाना दृष्टियों से अध्ययन और फिर दूसरे अनेक वादों का अध्ययन किया जाता था, ऐसा कहा गया है । इन वादों में तेरासिय मतका उल्लेख सर्व प्रथम है जिससे तात्पर्य त्रैराशिक-आजीविक सिद्धान्त से ही हैं, जो जैन सिद्धान्त के सबसे अधिक निकट होने के कारण अपने सिद्धान्त के पश्चात् ही पढ़ा जाता था । धवला में सूत्र के ८८ अधिकारों का उल्लेख है जिनमें से केवल चार के नाम दिये हैं। जयधवला में स्पष्ट कह दिया है कि उन ८८ अधिकारों के अब नामों का भी उपदेश नहीं पाया जाता । किन्तु जो कुछ वर्णन दिगम्बर सम्प्रदाय में शेष रहा है उसमें विशेषता यह है कि वह उन लुप्त ग्रंथों के विषय पर बहुत कुछ प्रकाश डालता है; श्वेताम्बर श्रुत में केवल अधिकारों के नाममात्र शेष हैं जिनसे प्राय: अब उनके विषय का अंदाज लगाना भी कठिन है।
पुव्वगय के १४ भेद तथा उनके पुव्वगय के १४ भेद तथा उनके अन्तर्गत वत्थू और चूलिका
अन्तर्गत वत्थू १. उप्पायं (१० वत्थू +४ चूलिआ) १. उप्पाद (१० वत्थू) २. अग्गाणीयं (१४ वत्थू + १२ चूलिआ) २. अग्गोणियं (१४ वत्थू) ३. वीरिअं (८ वत्थू + ८ चूलिया) ३. वीरियाणुपवादं (८ वत्थू)