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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १५९ कस्माद् ? उच्यते, यस्मात्ते सर्व त्र्यात्मकमिच्छन्ति, यथा जीवोऽजीवो जीवाजीत:, लोकोऽलोको लोकालोकः, सत् असत् सदसत् इत्येवमादि । नयचिन्तायामपि ते त्रिविधं नयमिच्छान्ति । तद्यथा द्रव्यर्थिकः पर्यायार्थिकः उभयार्थिकः । अतो भणितं 'सत्त तेरासिय' त्ति । सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकपाखण्डिकास्त्रिविधया नयचिन्तया चिन्तयन्तीत्यर्थः । (समवायांग टीका) इसका अभिप्राय यह है कि परिकर्म के जो सात भेद ऊपर गिनाये गये हैं उनमें से प्रथम छ भेद तो स्वसमय अर्थात् अपने सिद्धान्त के अनुसार हैं, और सातवां भेद आजीविक सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार है । जैनियों के सात नयों में से प्रथम अर्थात् नैगम नयका तो संग्रह और व्यवहार में अन्तर्भाव हो जाता है, तथा अन्तिम दो अर्थात् समभिरूढ़ और एवं भूत शब्दनयमें प्रविष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार मुख्यता से उनके चार ही नय रहते हैं, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द । इस अपेक्षा से जैनी चउक्कणइक अर्थात् चतुष्कनयिक कहलाते हैं । आजीविक सम्प्रदाय वाले सब वस्तुओंको त्रि-आत्मक मानते हैं, जैसे जीव, अजीव और जीवाजीव; लोक, अलोक और लोकालोक; सत्, असत् और सदसत्, इत्यादि। नय का चिन्तन भी वे तीन प्रकार से करते हैं - द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक और उभयार्थिक । अत: आजीविक तेरसिय अर्थात् त्रैराशिक भी कहलाते हैं। उन्हीं की मान्यतानुसार परिकर्म का सातवां भेद 'चुआचुअसेणिआ' जोड़ा गया है । इस सूचना से जैन और आजीवक सम्प्रदायों के परस्पर सम्पर्क पर बहुत प्रकाश पड़ता है मंखलिगोशाल महावीरस्वामी व बुद्धदेव के समसामयिक धर्मोपदेशक थे। उनके द्वारा स्थापित आजीविक सम्प्रदाय के बहुत उल्लेख प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रंथों में पाये जाते हैं। प्रस्तुत सूचना पर से जाना जाता है कि उनका शास्त्र और सिद्धान्त जैनियों के शास्त्र और सिद्धान्त के बहुत ही निकटवर्ती था, केवल कुछ-कुछ भेद-प्रभेदों और दृष्टिकोणों में अन्तर था । भूमिका जैनियों और आजीविकों की प्राय: एक ही थी । आगे चलकर, जान पड़ता है, जैनियों ने आजीविकों की मान्यताओं को अपने शास्त्र में भी संग्रह कर लिया और इस प्रकार धीरे-धीरे समस्त आजीविक पंथ का अपने ही समाज में अन्तर्भाव कर लिया। ऊपर की सूचना में यद्यपि टीकाकार ने आजीविकों को पाखंडी कहा है, पर उनकी मान्यता को वे अपने शास्त्र में स्वीकार कर रहे हैं। परिकर्म के पूर्वोक्त सात भेद दिगम्बर मान्यता में नहीं पाये जाते । पर इस मान्यता के जो पांच भेद चंदपण्णत्ति आदि हैं, उनमें से प्रथम तीन तो श्वेताम्बर आगम के उपांगों में गिनाये हुए मिलते हैं, तथा चौथा दीवसायरपण्णत्ती व जंबूदीवपण्णत्ती और चंदपण्णत्ती के
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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