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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १५८ को पहले और पुव्वगय को उसके अन्तर रखते हैं। यह भेद या तो आकस्मिक हो, या दोनों सम्प्रदायों के प्राचीन पठनक्रम के भेद का द्योतक हो । दिगम्बरीय क्रम की सार्थकता आगे पूर्वो के विवेचन में दिखायी जावेगी। परिकर्म के ७ भेद परिकर्म के ५ भेद १. सिद्धसेणिआ १. चंदपण्णती २. मणुस्ससेणिआ २. सूरपण्णत्ती ३. पुट्ठसेणिआ ३. जंबूदीवपण्णत्ती ४. ओगाढसेणिआ ४. दीवसायरपण्णत्ती ५. उवसंपन्जणसेणिआ ५. वियाहपण्णत्ती ६. विप्पजहणसेणिआ ७. चुआचुअसेणिआ ये परिकर्म के भेद दोनों सम्प्रदायों में संख्या और नाम दोनों बातों में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं । सिद्धश्रेणिकादि भेदों का क्या रहस्य था, यह ज्ञात नहीं रहा । समवायांग के टीकाकार कहते हैं - 'एतच्च सर्व समूलोत्तरभेदं सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नं ।' अर्थात् यह सब परिकर्मशास्त्र अपने मूल और (आगे बतलाये जाने वाले) उत्तर भेदों सहित सूत्र और अर्थ दोनों प्रकार से नष्ट हो गया । किन्तु सूत्रकार व टीकाकारने इन सात भेदों के सम्बन्ध में कुछ बातें ऐसी बतलायी हैं जो बड़ी महत्वपूर्ण हैं। परिकर्म के सात भेदों के सम्बन्ध में वे लिखते हैं - इच्चेयाई छ परिकम्माई ससमइयाई, सत्त आजीवियाई; छ चउक्क-णइयाई, सत्त तेरासियाई। (समवायांगसूत्र) एतेषां च परिकर्मणां षट् आदिमानि परिकर्माणि स्वसामयिकान्येव । गोशलकप्रवर्तिताजीविक-पाखण्डिक-सिद्धान्तमतेन पुन: च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्मसहितानि सप्त प्रज्ञाप्यन्ते । इदानीं परिकर्मसु नय-चिन्ता । तत्र नैगमो द्विविधः सांग्राहिकोऽसांग्राहिकश्च । तत्र सांग्राहिक: संग्रहं प्रविष्टोऽसांग्राहिबश्च व्यवहारम् । तस्मात्संग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्र: शब्दादयश्चैक एवेत्येवं चत्वारो नया: । एतैश्चतुभिर्नय: षट् स्वसामयिकानि परिकर्माणि चिन्त्यन्ते, अतो भणितं 'छ चउक्क-नयाई' ति भवन्ति । त एव चाजीविकास्त्रैराशिका भणितः।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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