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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १४८ परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलठ्ठे तत्तोआणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्त - विरोहादी । णच वेयणाखंडं महाकम्मपयडिपाहुडं अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो । णच भूदबली गोदमो, विगलसुदधारस्य धरसेणाइरियसीसस्स भूदबलिस्स सयलसुदधारयवड्ढमाणंतेवासि - गोदमत्तविरोहादो । ण चाण्णो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदो अस्थि । अर्थात् यह मंगल (मो जिणाणं, आदि) निबद्ध है या अनिबद्ध ? यह निबद्धमंगल तो नहीं है क्योंकि महाकर्मप्रकृतिपाहुड के कृति आदि चौबीस अनुयोग द्वारों के आदि में गौतमस्वामी ने इस मंगल का प्ररूपण किया है और भूतबलि भट्ठारक ने उसे वहां से उठाकर मंगलार्थ यहां वेदनाखंड के आदि में रख दिया है, इससे इसके निबद्ध - मंगल होने में विरोध आता है। न तो वेदनाखंड महाकर्मप्रकृतिपाहुड है, क्योंकि अवयव को अवयवी मानने में विरोध आता है । और न भूतबली ही गौतम है क्योंकि विकलश्रुतके धारक और धरसेनाचार्य के शिष्य भूतबलि को सकलश्रुत के धारक और वर्धमान स्वामी के शिष्य गौतम मानने में विरोध उत्पन्न होता है । और कोई प्रकार निबद्ध मंगलत्व का हेतु हो नहीं सकता । आगे टीकाकार ने इस मंगल को निबद्धमंगल भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, पर इसके लिये उन्हें प्रस्तुत ग्रंथ का महाकर्मप्रकृतिपाहुड से तथा भूतबलिस्वामी का गौतमस्वामी से बड़ी खींचतानी द्वारा एकत्व स्थापित करना पड़ा है। इससे धवलाकार का यह मत बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि दूसरे के बनाये हुए मंगल को अपने ग्रंथ में जोड़ देने से वह शास्त्र निबद्ध मंगल नहीं कहला सकता, निबद्ध - मंगलत्व की प्राप्ति के लिये मंगल ग्रंथकार की ही मौलिक रचना होना चाहिये । अतएव जब कि धवलाकार जीवट्ठाण को णमोकार मन्त्ररूप मंगल के होने से निबद्ध - मंगल मानते हैं तब वे स्पष्टत: उस मंगलसूत्र को सूत्रकार पुष्पदन्त की ही मौलिक रचना स्वीकार करते हैं, वे यह नहीं मानते कि उस मंगल को उन्होंने अन्यत्र कहीं से लिया है। इससे धवलाकार आचार्य वीरसेन का यह मत सिद्ध हुआ कि इस सुप्रसिद्ध णमोकार मंत्र के आदिकर्त्ता प्रात: स्मरणीय आचार्य पुष्पदन्त ही हैं। २ णमोकार मंत्र के सम्बन्ध में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की क्या मान्यता है और उसका पूर्वोक्त मत से कहां तक सामान्जस्य या वैषम्य है, इस पर भी यहां कुछ विचार किया जाता
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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