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________________ १४७ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका अर्थात् 'मंगल, निमित्त हेतु परिमाण, नाम और कर्ता । इन छहों का प्ररूपण करके पश्चात् आचार्य को शास्त्र का व्याख्यान करना चाहिये।' इस आचार्य परम्परागत न्याय को मन में धारण करके पुष्पदन्ताचार्य मंगलादि छहों के सकारण प्ररूपण के लिये सूत्र कहते हैं, णमो अरिहंताणं आदि । इसके आगे धवलाकार ने इसी मंगलसूत्र को 'तालपलंब' सूत्र के समान देशामर्षक बतलाकर पूर्वोक्त मंगल, निमित्त आदि छहों का प्ररूपक सिद्ध किया है । तत्पश्चात् मंगल शब्द की व्युत्पत्ति व अनेक दृष्टियों से भेद प्रभेद बतलाते हुए मंगल के दो भेद इस प्रकार किये हैं - तज्ज मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि । तत्थ णिबद्धं णाम जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्ध-देवदा - णमोक्कारो तं णिबद्ध - मंगलं । जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्ध - मंगलं । इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्ध - मंगलं, यत्तो 'इमेसिं चोद्दसणंहं जीवसमाणं ' इदि एदस्स सुत्तस्सादीएणिबद्ध - ' णमो अरिहंताणं ' इच्चादिदेवदा • णमोक्कारदंसणादो । (सं० पं०१, प. ४१) - अर्थात् मंगल दो प्रकार का है, निबद्ध और अनिबद्ध । सूत्र के आदि में सूत्रकर्त्ता द्वारा जो देवता - नमस्कार निबद्ध किया जाय वह निबद्ध मंगल है और जो सूत्र के आदि में सूत्रकर्त्ता द्वारा देवता को नमस्कार किया जाता है ( किन्तु वह नमस्कार लिपिबद्ध नहीं किया जाता) वह अनिबद्ध - मंगल है। यह जीवट्ठाणं निबद्ध मंगल है, क्योंकि इसके 'इमेसिं चोद्दसण्हं' आदि सूत्र के पूर्ण 'णमो अरिहंताणं' इत्यादि देवतानमस्कार पाया जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जीवट्ठाण के आदि में जो यह णमोकार मंत्र पाया जाता है वह सूत्रकार पुष्पदन्त आचार्य द्वारा ही वहां रखा गया है और इससे उस शास्त्र को निबद्ध-मंगल संज्ञा प्राप्त हो जाती है । किन्तु इससे यह स्पष्ट ज्ञात नहीं होता है कि यह मंगलसूत्र स्वयं पुष्प दन्ताचार्य ने रचकर यहां निबद्ध किया है, या कहीं अन्यत्र से लेकर यहां रख दिया है । पर अन्यत्र धवलाकार ने इसका भी निर्णय किया है । वेदनाखंड के आदि में 'णमो जिणाणं' आदि मंगलसूत्र पाये जाते हैं, जिनकी टीका करते हुए धवलाकार ने उनके निबद्ध अनिबद्ध स्वरूप का विवेचन किया है । वे लिखते हैंI तत्थेदं किं णिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि ? ण ताव णिबद्ध - मंगलमिदं, महाकम्मपयडिपाहुढस्स कदियादि - चउवीस - अणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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