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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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है । श्वेताम्बर आगम के अन्तर्गत छह छेदसूत्रों में से द्वितीय सूत्र 'महानिशीथ' नाम का है । इस सूत्र में णमोकार मन्त्र के विषय में निम्न वार्ता पायी जाती है -
एयं तु जं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेणं अणंतगमपज्जवेहिं सुत्तस्स य पियभूयाहिं णिज्जुत्ति -भास- -चुन्नीहिं जहेव अनंत-नाण- दंसणधरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं तहेव समासओ वक्खाणिज्जं तं आंसि । अहन्नया कालपरिहाणिदोसेणं ताओ णिज्जुत्ति-भास - -चुन्नीओ वुच्छिान्नाओ । इओ य वच्चंतेणं कालेणं समएणं महिड्डिपत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुबालसंगसुअहरे समुपन्ने । तेण य पंच- मंगल महासुयक्खधंस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ । मूलसुत्तं पुण सुत्तताए गणहरेहिं अत्थत्ताए अरिहंतेहिं भगवंते हिं धम्मतित्थयरेहिं तिलोगमहिएहिं वीरजिणिंदेहिं पन्नवियं त्ति एस बुड्डसंपयाओ । ( महानिशीथ सूत्र, अध्याय ५ )
इसका अर्थ यह है किइस पंचमंगल महाश्रुतस्कंध का व्याख्यान महान प्रबंधसे, अनन्त गम और पर्यायों सहित, सूत्र की प्रियभूत निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियों द्वारा जैसा अनन्त ज्ञान - दर्शन के धारक तीर्थकरों ने किया था उसी प्रकार संक्षेप में व्याख्यान करने योग्य था । किन्तु आगे कालपरिहानि के दोष से वे नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियां विच्छिन्न हो गई । फिर कुछ काल जाने पर यथासमय महाऋद्धि को प्राप्त पदानुसारी वइरसामी (वैरस्वामी या बज्रस्वामी) नाम के द्वादशांग श्रुत के धारक उत्पन्न हुए । उन्होंने पंचमंगल महाश्रुतस्कंध का उद्धार मूलसूत्र के मध्य लिखा । यह मूलसूत्र सूत्रत्व की अपेक्षा गणधरों द्वारा तथा अर्थ की अपेक्षा से अरहंत भगवान, धर्मतीर्थकर त्रिलोकमहित वीरजिनेंद्र के द्वारा प्रज्ञापित है, ऐसा वृद्धसम्प्रदाय है ।
यद्यपि महानिशीथसूत्र की रचखना श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बहुत कुछ पीछे की अनुमान की जाती हैं, ' तथापि उसके रचयिता ने एक प्राचीन मान्यता का उल्लेख किया है जिसका अभिप्राय यह है कि इस पंचमंगलरूप श्रुतस्कंध के अर्थकर्ता भगवान् महावीर हैं और सूत्ररूप ग्रंथकर्ता गौतमादि गणधर हैं । इसका तीर्थकर कथित जो व्याख्यान था वह कालदोप से विच्छिन्न हो गया । तब द्वादशांग श्रुतधारी बइरस्वामी ने इस श्रुतस्कंध का उद्धार करके उसे मूल सूत्र के मध्य में लिख दिया । श्वेताम्बर आगम में चार मूल सूत्र माने गये हैं - आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिंडनिर्युक्ति । इनमें से कोई भी सूत्र वज्रसूरि के नाम से सम्बद्ध नहीं हैं। उनकी चूर्णियां भद्रबाहुकृत कही जाती हैं । उन मूल
१. Winternity : Hist. Ind. Lit. II. P. 465.