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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका है, अर्थात् उसमें उक्त पाहुड के चौबीसों अनुयोगद्वारों का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। महाकर्म प्रकृति पाहुड अवयवी है और वेदनाखंड उसका एक अवयव ।
दूसरे शंका समाधान से यह सूचना मिलती है कि कृति आदि चौबीस अनुयोग द्वारों में अकेला वेदनाखंड नहीं फैला है, वेदना आदि खंड है अर्थात् वर्गणा और महाबंध का भी अन्तर्भाव वहीं है । तीसरे शंका समाधान में कर्मप्रकृति पाहुड के कृति आदि अवयवों में भी एक दृष्टि से पाहुडपना स्थापित करके चौथे में स्पष्ट निर्देश किया गया है कि वेदनाखंड में गौतमस्वामीकृत बड़े विस्तारवाले वेदना अधिकार का ही उपसंहार अर्थात् संक्षेप है । यह वेदना धवलाकी अ. प्रति में पृ.७५६ पर प्रारम्भ होती है जहां कहा गया है -
कम्मट्ठजणियवेयण-उवहि-समुत्तिणणाए जिणे णमिउं। वेयणमहाहियारं विविहहियारं परूवेमो॥
और वह उक्त प्रति के ११०६ वें पत्र पर समाप्त होती है जहां लिखा मिलता है - ‘एवं वेयण-अप्पाबहुगाणिओगद्दारे समत्ते वेयणाखंड समत्ता ।
इस प्रकार इस पुष्पिकावाक्य में अशुद्धि होते हुए भी वहां वेदनाखंड की समाप्ति में कोई शंका नहीं रह जाती।
पांचवे और छठवें शंका समाधान में भूतबलि और गौतम में ग्रंथकर्ता व अभिप्राय की अपेक्षा एकत्व स्थापित किया गया है जो सहज ही समझ में आ जाता है । इस प्रकार उक्त मंगल निबद्ध भी सिद्ध करके बता दिया गया है।
इस प्रकार उक्त शंका समाधान से वेदनाखंड की दोनों सीमायें निश्चित हो जाती हैं। कृति तो वेदनाखंड के अंतर्गत है ही क्योंकि उक्त शंका समाधान की सूचना के अतिरिक्त मंगलाचरण के साथ ही वेदनाखंड का प्रारंभ माना ही गया है।
वेदनाखंड के विस्तार का एक और प्रमाण उपलब्ध है। टीकाकार ने उसका परिमाण सोलह हजार पद बतलाया है । यथा, 'खंडगंथं पडुच्च वेयणाए सोलसपदसहस्साणि'। यह पद संख्या भूतबलिकृत सूत्र-ग्रंथ की अपेक्षा से ही होना चाहिये । अतएव जब तक यह ज्ञात हो जावे कि पद से यहां धवलाकार का क्या तात्पर्य है तथा वेदनादि खंडों के सूत्र अलग करके उन पर वह माप न लगाया जावे तब तक इस सूचना का हम अपनी जांच में विशेष उपयोग नहीं कर सकते । तो भी चूंकि टीकाकारने एक अन्य खंड की भी इस प्रकार पद संख्या दी है और उस खंड की सीमादि के विषय में कोई विवाद नहीं है इसलिये हमें