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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका उनकी तुलना से कुछ आपेक्षिक ज्ञान अवश्य हो जायेगा । धवलाकार ने जीवट्ठाण खंड की पद संख्या अठारह हजार बतलाई है - 'पदं पडुच्च अट्ठारहपदसहस्सं' (संत प.पृ.६०) इससे यह ज्ञात हुआ कि वेदनाखंड का परिमाण जीवट्ठाण से नवमांश कम है । जीवट्ठाण के ४७५ पत्रों का नवमांश लगभग ५३ होता है, अत: साधारणतया वेदनाखंड की पत्र संख्या ४७५५३ - ४२२ के लगभग होना चाहिये । ऊपर निर्धारित सीमा के अनुसार वेदना की पत्र संख्या प्रत्यक्ष में ६६७ से ११०६ तक अर्थात् ४३८ है जो आपेक्षित अनुमान के बहुत नजदीक पड़ती है। समस्त चौबीस अनुयोग द्वारों को वेदना के भीतर मान लेने से तो जीवट्ठाण की अपेक्षा वेदनाखंड धवला के तिगुने से भी अधिक बड़ा हो जाता है। वर्गणा निर्णय ___ जब वेदनाखंड का उपसंहार वेदनानुयोगद्वार के साथ हो गया तब प्रश्न उठता है कि उसके आगे के फास आदि अनुयोगद्वार किस खंड के अंग रहे ? ऊपर वेदनादि तीन खंडों के उल्लेखों के विवेचन से यह स्पष्ट ही है कि वेदना के पश्चात् वर्गणा और उसके पश्चात् महाबंध की रचना है। महाबंध की सीमा निश्चित रूप से निर्दिष्ट है क्योंकि धवला में स्पष्ट कर दिया गया है कि बन्धन अनुयोगद्वार के चौथे प्रभेद बन्धविधान के चार प्रकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध का विधान भूतबलि भट्टारक ने महाबंध में विस्तार से लिखा है, इसलिये वह धवला के भीतर नहीं लिखा गया । अत: यहींतक वर्गणाखंड की सीमा समझना चाहिये । वहां से आगे के निबन्धनादि अठारह अधिकार टीका की सूचनानुसार चूलिका रूप है । वे टीकाकार कृत है भूतबलिकी रचना नहीं है। उक्त खंड विभाग को सर्वथा प्रामाणिक सिद्ध करने के लिये अब केवल उस प्रकार के किसी प्राचीन विश्वनीय स्पष्ट उल्लेख मात्र की अपेक्षा और रह जाती है । सौभाग्य से ऐसा एक उल्लेख भी हमें प्राप्त हो गया है । मूडविद्री के पं. लोकनाथजी शास्त्री ने वीरवाणी विलास जैन सिद्धांतभवन की प्रथम वार्षिक रिपोर्ट (१९३५) में मूडविद्री की ताड़पत्रीय प्रति पर से महाधवल (महाबंध) का कुछ परिचय अवतरणों सहित दिया है। इससे प्रथम बात तो यह जानी जाती है कि पंडितजी को उस प्रति में कोई मंगलाचरण देखने को नहीं मिला । वे रिपोर्ट में लिखते हैं "इसमें मंगलाचरण श्लोक, ग्रंथ की प्रशस्ति बगैरह कुछ भी नहीं है।" पं. लोकनाथजी की यह रिपोर्ट महत्वपूर्ण है क्योंकि पंडितजी ने ग्रंथ को केवल ऊपर नीचे ही नहीं देखा- उन्होंने कोई चार वर्ष तक परिश्रम करके पूरे महाधवल ग्रंथ की नागरी प्रतिलिपि तैयार की है जैसा कि हम प्रथम जिल्द की भूमिका में बतला आये हैं। अतएव उस
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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