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________________ १३८ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका पुवाणुपुव्वी पच्छाणुपुब्वी जत्थतत्थाणुपुत्वी चेदि तिविहा आणुपुब्वी । जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुव्वाणुपुव्वी । तिस्से उदाहरणं 'उसहमजियं च वंदे' । इच्चेवमादि। जं उबरीदो हेट्ठा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुव्वी । तिस्से उदाहरणं-एस करेमि य पणमं ! जिणवरबसहस्स बदमाणस्स । सेसाणं च जिणाणं सिवसुहकंखा विलोमेण ॥ यहां यह बतलाया है कि जहां पूर्व से तत्पश्चात् की ओर क्रम से गणना की जाती है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं, जैसे 'ऋषभ और अजितनाथ को नमस्कार' । पर जहां नीचे या पश्चात् से ऊपर या पूर्व की ओर अर्थात् विलोमक्रम से गणना की जाती है वह पश्चादानुपूर्वी कहलाती है जैसे मैं वर्द्धमान जिनेश को प्रणाम करता हूँ और शेष (पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि) तीर्थकरों को भी । यहां 'उबरीदो' से तात्पर्य 'आगे' से है और पीछे की ओर के लिये हेट्ठा (अध:) शब्द का प्रयोग किया गया है। धवला में आगे बंधन अनुयोग द्वार की समाप्ति के पश्चात् कहा गया है 'एत्तो उबरिमंगथो चूलिया णाम' । अर्थात् यहां से ऊपर के ग्रंथ का नाम चूलिका है । यहां भी 'उवरिम' से तात्पर्य आगे आने वाले ग्रंथ विभाग से है न कि पूर्वोक्त विभाग से। . __ और भी धवला में सैकड़ों जगह ‘उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो,' 'उवरिमसुत्तं भणदि' आदि । इनमें प्रत्येक स्थल पर निर्दिष्ट सूत्र आगे दिया गया पाया जाता है । उबरिका । पूर्वोक्त के अर्थ में प्रयोग हमारी दृष्टि में नहीं आया। ___ इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि उवरिका अर्थ आगे आने वाले खंडों से ही हो सकता है, पूर्वोक्त से नहीं। और फिर प्रकृत में तो 'उच्चमाण ' पद इस अर्थ को अच्छी तरह स्पष्ट कर देता है क्योंकि उसका अभिप्राय केवल प्रस्तुत और आगे आने वाले खंडों से ही हो सकता है। पर यदि आगे कहे जाने वाले तीन खंडों का यह मंगल है तो इस बात का वर्गणा और महाबंध के आदि में मंगलाचरण की सूचना से कैसे सामजस्य बैठ सकता है ? यही एक विकट स्थल है जिसने उपर्युक्त सारी गड़बड़ी विशेष रूप से उत्पन्न की है । समस्त प्रकरण पर सब दृष्टियों से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि धवला की उपलब्ध प्रतियों में वहां पाठ की अशुद्धि है। मेरे विचार से 'वग्गणामहाबंधाणमादीए मंगलकरणादो' की जगह 'वग्गणामहाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो ' पाठ होना चाहिये । दीर्घ 'आ' के स्थान पर हश्व 'अ' की मात्रा की अशुद्धियां तथा अन्य स्वरों में भी हश्व दीर्घ के व्यत्यय इन प्रतियों में भरे पड़े हैं। हमें अपने संशोधन में इस प्रकार के सुधार सैकड़ों जगह करना
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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