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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१३७ - इन्हीं अठारह अनुयोगद्वारों की वीरसेन द्वारा रचना का विशद इतिहास इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में दिया है । इसी चूलिका विभाग को उन्होंने छटवां खंड भी कहा है । इस प्रकार चौबीसों अनुयोग द्वारों के कथन के साथ ग्रंथ अपने स्वाभाविक रूप से समाप्त होता है । अब यदि इन्हीं अनुयोगद्वारों के भीतर वर्गणाखंड नहीं माना जाता तो उसके लिये कौन सा विषय व अधिकार शेष रहा और वह कहां से छूट गया होगा ? लेखक द्वारा उसके छोड़ दिये जाने की आशंका को तो इस रचना में बिल्कुल ही गुंजाइश नहीं रही।
वेदनाखंड के आदि अवतरणों का ठीक अर्थ
वेदनाखंड के आदि मंगलाचरण की व्यवस्था संबंधी सूचना का जो अर्थ लगाया जाता है और उससे जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है उसका हम ऊपर परिचय करा चुके हैं। अब हमें यह देखना आवश्यक है कि उक्त भूलों का क्या कारण है और उन अवतरणों का ठीक अर्थ क्या है । 'उबिर उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु' का अर्थ 'ऊपर कहे हुए तीन खंड' तो हो ही नहीं सकता । पर ऐसा अर्थ किये जाने के दो कारण मालूम होते हैं। प्रथम तो 'उबरि' से सामान्य ऊपर अर्थात् पूर्वोक्त का अर्थ ले लिया गया है और दूसरे उसकी आवश्यकता भी यों प्रतीत हुई क्योंकि आगे वर्गणा और महाबंध में अलग मंगल करने का उल्लेख पाया जाता है। पर खोज और विचार से देखा जाता है कि 'उवरि' शब्द का धवलाकार ने पूर्वोक्त के अर्थ में कहीं उपयोग नहीं किया। उन्होंने उस शब्द का प्रयोग सर्वत्र 'आग' के अर्थ में किया है और पूर्वोक्त के लिये 'पुव्व' या पुन्वुत्त का । उदाहरणार्थ, संतपरूवणा, पृष्ठ १३० पर उन्होंने कहा है -
__ संपहि पुव्वं उत्त-पयडिसमुक्त्तिणा......... एदण्हं पंचण्हमुवरि संपहि पुव्वुत्तजहण्णट्ठिदि ....... च पक्खित्ते चूलियाए णव अहियारा भवंति।
____ अर्थात् पूर्वोक्त प्रकृति समुत्कीर्तनादि पांचों के ऊपर अभी कहे गये जघन्य स्थिति आदि जोड़ देने पर चूलिका के नौ अधिकार हो जाते हैं । यहां ऊपर कहे जा चुके के लिये 'पुव्वं उत्त' व 'पुन्वुत्त' शब्द प्रयुक्त हुए हैं और ‘उवरि' से आगे का तात्पर्य है।
पृ.७३ पर 'उवरि' से बने हुए उवरीदो (उपरित:) अव्यय का प्रयोग देखिये । आचार्य कहते हैं -
१ सं. पं. भू. पृ. ३८, ६७