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________________ (ii) धवला टीका की शौरसेनी प्राकृत में ताड़पत्र पर कन्नड़ लिपि में लिखी हुई तीन प्रतियां मूडबिद्री (कर्नाटक) के 'सिद्धान्तवसति' मन्दिर में सुरक्षित हैं । नेमिचंद्र आचार्य ने इसी धवलसिद्धान्त का निर्वृहण ९६२ गाथाओं में गोम्मटसार भाग-१ और २ नामक ग्रंथों में ई. सन् ११३६ में प्रस्तुत कर सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त की थी । अनुमान है कि गोम्मटसार के प्रचार में आने के बाद मूल षट्खंडागम के अध्ययन-अध्यापन की प्रणाली समाप्त हो गयी और ग्रंथराज केवल पूजा की वस्तु रह गये । शताब्दियों पुरानी प्रतियों की उत्तरोतर बढ़ती जीर्णता को देखकर समाज के कर्णधारों को चिंता हुई और १८९५ ई.सन् के आसपास से इन सिद्धांत ग्रंथों के उद्वार का उपक्रम शुरू हुआ। इस उद्वार कथा का इतिहास जितना रोचक है उतना ही पीड़ादायक है । इसका विस्तार से वर्णन उद्वार-पुरोधा डॉ.हीरालाल जैन ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका में यथास्थान किया है । यहां इतना उल्लेख ही इलम है कि प्राच्य विद्या के विशिष्ट क्षेत्र जैनसिद्धान्त तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अप्रतिम और समर्पित विद्वान डॉ.हीरालाल जैन को इस विशाल ज्ञानयज्ञ में अपने मूल्यवान जीवन के बीस वर्ष और अमूल्य जीवन संगिनी का उत्सर्ग करना पड़ा। ___ डॉ.हीरालाल जैन ने षट्खंडागम और उसकी धवला टीका का सम्पादन कार्य सन् १९३८ ई. में प्रारंभ किया था। उन्होंने सोलह जिल्दों में इस महान रचना का मूल पाठ, उसका मूलगामी अनुवाद, विशिष्ट स्पष्टीकरण, शंका- समाधान, तुलनात्मक टिप्पण तथा ऐतिहासिक विवेचन और पारिभाषिक शब्दों की सूची प्रस्तुत की है । इस कार्य में उन्होंने अपने आत्मीय मित्र, प्राकृत-कन्नड़ भाषाविद् प्रोफेसर डॉ.ए.एन.उपाध्ये का उदार सहयोग पं.हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री, पं. बालचंद्र शास्त्री, पं.देवकीनंदन सिद्धांत शास्त्री और पं.फूलचंद शास्त्री जैसे परंपरा-पोषक पंडितों की सहायता भी लेना पड़ी । लेकिन दो हजार वर्ष पुराने ग्रंथों का, जिनकी भाषा और भावधारा आज की भाषा और भावधारा से बहुत व्यवधान पा चुकी हो, सम्पादन कार्य बेहद जटिल और दुरुह होता है । इसका अनुभव दशवकालिक का सम्पादन करते हुये मुनि नथमलजी को भी हुआ था । इसीलिये इस प्रसंग में उनका यह कथन उल्लेखनीय है "मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अत: वह किसी भी कार्य को इसलिये नहीं छोड़ देता कि वह दुरुह है । यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की संभावना नष्ट हो जाती और जो आज प्राप्त है वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता।"
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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