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उपोद्घात -
__ साहित्य के भीतर दो कोटि के तत्व होते हैं - एक उसका शाब्दिक और रचनात्मक रूप तथा दूसरा आर्थिक और विचारात्मक रूप । जैन परम्परा में इन्हें क्रमशः द्रव्यश्रुत और भावश्रुत कहा गया है । महावीर तीर्थंकर के पहिले द्रव्यश्रुत की दृष्टि से कोई जैन साहित्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु महावीर-पूर्व प्रचलित ज्ञानभंडार को श्रमण परंपरा में पूर्व की संज्ञा दी गई है । यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि तीर्थंकर कथित गुणधर रचित और आचार्य परंपरा से आगत अर्थ को व्यक्त करने वाले सिद्धान्तग्रंथ भारतीय परंपरा में आगम कहे गये हैं। जैन परंपरा में द्वादशांग आगम स्वीकृत हैं। द्वादशांग आगम के बारहवें अंग दृष्टिवाद में ऐसे चौदह पूर्वो का उल्लेख है जिनमें श्रमण परंपरा की अनेक विचारधाराओं, मत-मतान्तरों तथा ज्ञान-विज्ञान का संकलन तीर्थंकर महावीर के प्रधान शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम द्वारा किया गया है । वस्तुत: धार्मिक, दार्शनिक और नैतिक विचारों तथा मंत्र, तंत्र, शकुनशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, फलित ज्योतिष, नाना कलाओं और आयुर्वेद आदि विज्ञान विषयक ज्ञान भंडार की समग्र प्रस्तुति के कारण इन पूर्वो को प्राचीन काल का ज्ञानकोष कहा जाता है। . उक्त समस्त पूर्वो के अंतिम ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। दुर्भाग्यवश अधिकांश पूर्व और आगम साहित्य सुरक्षित नहीं रहा । जैन मुनियों के लिये उपयुक्त और आवश्यक था उतना पूर्व साहित्य द्वादशांग में समाविष्ट कर लिया गया । आगमों का भी आंशिक ज्ञान मुनि परंपरा में सुरक्षित रहा । वीर निर्वाण के लगभग सात शताब्दियों पश्चात् गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी एकमात्र आचार्य धरसेन ही आगम के एक देश ज्ञाता थे । उन्हें आग्राहणीय पूर्व के कुछ अधिकारों का विशेष ज्ञान था । उन्होंने यह ज्ञान पुष्पदंत और भूतवलि नामक शिष्यों को सिखाया था । धरसेन गुरू से शिक्षा प्राप्त कर आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि ने षट्खंडागम की छै हजार सूत्रों में रचना ई.सन्.०११६ में सम्पूर्ण की। अगले सात सौ वर्षों में इसकी छै टीकाएँ लिखी गईं। किन्तु भट्टारक वीरसेन द्वारा रचित ७२ हजार श्लोक प्रमाण धवलाटीका ही आज उपलब्ध है।