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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१३५ गुणधर और धरसेन गुरुओं की पूर्वा पर आचार्य परम्परा हम नहीं जानते क्योंकि न तो हमें वह बात बतलानेवाला कोई आगम मिला और न कोई मुनिजन । कितनी स्पष्टवादिता, साहित्यिक सचाई और नैतिकबल इस अज्ञान की स्वीकारता में भरी हुई है ? क्या इन वाक्यों को लिखने वाले की प्रामाणिकता में सहज ही अविश्वास किया जा सकता है ? ६. मूडविद्री से प्रतिलिपि करने वाले लेखक की प्रामाणिकता
जिस परिस्थिति में और जिस प्रकार से धवला और जयधवला की प्रतियां मूडबिद्री से बाहर निकली हैं उसका हम प्रथम जिल्द की भूमिका में विवरण दे आये हैं। उस पर से उपलब्ध प्रतियों की प्रामाणिकता में नाना प्रकार के सन्देह करना स्वाभाविक है । अतएव जो धवला के भीतर वर्गणाखंड का होना नहीं मानते उन्हें यह भी कहने को मिल जाता है कि यदि मल धवला में वर्गणाखंड रहा भी हो तो उक्त लिपिकार ने उसे अपना परिश्रम बचाने के लिये जानबूझकर छोड़ दिया होगा और अन्तिम प्रशस्ति आदि जोड़कर अपने ग्रंथकों को पूरा प्रकट कर दिया होगा ताकि उसके पुरस्कारादि में फरक न पड़े। इस कल्पना की सचाई झुठाई का पूरा निर्णय तो तभी हो सकता है जब यह ग्रंथ ताड़पत्रीय प्रति से मिलाया जा सके। पर उसके अभाव में भी हम इसकी संभावना की जांच दो प्रकार से कर सकते हैं। एक तो उस लेखक की कार्य की परीक्षा द्वारा और दूसरे विद्यमान धवला की रचना की परीक्षा द्वारा। धवला के संशोधन संपादन संबंधी कार्य में हमें इस बात का बहुत कुछ परिचय मिला है कि उक्त लेखक ने अपना कार्य कहां तक ईमानदारी से किया है । हमें जो प्रतियां उपलब्ध हुई हैं वे मूडविद्री से आई हुडी कनाडी प्रतिलिपि की नागरी प्रति की कापी की भी कापियां हैं। वे बहुत कुछ स्खलन-प्रचुर और अनेक प्रकार से दोष पूर्ण हैं । पर तो भी तीन प्रतियों के मिलान से ही पूरा और ठीक पाठ बैठा लेना संभव हो जाता है। इससे ज्ञात होता है कि जो स्खलन इन आगे की प्रतियों में पाये जाते हैं वे उस कनाड़ी प्रतिलिपि में नहीं हैं। यद्यपि कुछ स्थल इन सब प्रतियों के मिलान से भी पूर्ण या निस्सन्देह निर्णीत नहीं हो पाते और इसलिये संभव है वे स्खलन उसी प्रथम प्रतिलिपिकार द्वारा हए हों, पर इस ग्रंथ की लिपि, भाषा और विषय संबंधी कठिनाइयों को देखते हुए हमें आश्चर्य इस बात का नहीं है कि वे स्खलन हैं, किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि वे बहुत ही थोड़े और मामूली हैं, जो किसी भी लेखक के द्वारा अपनी शक्तिभर सावधानी रखने पर भी, हो सकते हैं। जो लेखक एक खंड के खंड को छोड़कर प्रशस्ति आदि मिलाकर ग्रंथ को पूरा प्रकट करने का दुःसाहस कर सकता है, उसके
१. संतपरूपणा, जिल्द १, भूमिका पृ. १५