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________________ १४ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका खंड संक्षेपरूप बनाकर छह खंडों की बहत्तर हजार ग्रंथप्रमाण, प्राकृत संस्कृत भाषा मिश्चित धवलाटीका बनाई। उनके शब्दों का धवलाकार के उन शब्दों सेमिलान कीजिये जो इसी संबंध के उनके द्वारा कहे गये हैं। निबन्धनादि विभाग को यहां भी 'उवरिम ग्रंथ' कहा है और अठारह अनुयोग द्वारों को संक्षेप में प्ररूपण करने की प्रतिज्ञा की गई है । धरसेन गुरुद्वारा श्रुतोद्धार का जो विवरण इंद्रनन्दिने दिया है वह प्राय: ज्यों का त्यों धवलाकार के वृतान्त से मिलता है । यह बात सच है कि इन्द्रनन्दि द्वारा कही गयी कुछ बातें धवलान्तर्गत वार्ता से किंचित् भेद रखती हैं। किन्तु उन पर से इन्द्रनन्दिको सर्वथा अप्रामाणिक नहीं ठहराया जा सकता, विशेषत: खंडविभाग जैसे स्थूल विषय पर । यद्यपि इन्द्रनन्दि का समय निर्णीत नहीं है, पर उनके संबंध में पं. नाथूरामजी प्रेमी का मत है कि ये वे ही इन्द्रनन्दि हैं जिनका उल्लेख आचायनेमिचन्द्र ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड की ३९६ वीं गाथा में गुरु रूप से किया है जिससे वे विक्रम की ११ हवीं शताब्दि के आचार्य ठहरते हैं । इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है । वीरसेन व धवला की रचना का इतिहास उन्होंने ऐसा दिया है जैसे मानो वे उससे अच्छी तरह निकटता से सुपरिचित हों । उनके गुरु एलाचार्य कहां रहते थे, वीरसेन ने उनके पास सिद्धान्त पढ़कर कहां कहां जाकर, किस मंदिर में बैठकर, कौनसा ग्रंथ साम्हने रखकर अपनी टीका लिखी यह सब इन्द्रनन्दिने अच्छी तरह बतलाया है जिसमें कोई बनावट व कृत्रिमता दृष्टिगोचर नहीं होती, बल्कि बहुत ही प्रामाणिक इतिहास जंचता है । उन्होंने कदाचित् धवला, जयधवला का सूक्षमावलोकन भले ही न किया हो और शायद नोट्स ले रखने का भी उस समय रिवाज न हो, पर उनकी सूचनाओं पर से यहबात सिद्ध नहीं होती कि धवल जयधवल ग्रंथ उनके साम्हने मौजूद ही नहीं थे । उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं लिखी जिसकी इन ग्रंथों की वार्ता से इतनी विषमता हो जो पढ़कर पीछे स्मृति के सहारे लिखनेवाले द्वारा न की जा सकती हो । इसके अतिरिक्त उनका ग्रंथ अभी तक प्राचीन प्रतियो से सुसंपादित भी नहीं हुआ है। किसी एकाध प्रति पर से कभी छाप दिया गया था, उसी के कापी हमारे साम्हने प्रस्तुत है । उन्होंने जो वार्ता किवदन्तियों व सुने-सुनाये आधार पर से लिखी हो वह भी उन्होंने बहुत सुव्यवस्थित करके, भरसक जांच पड़ताल के पश्चात्, लिखे। है और इसी तरह वे बहुत सी ऐसी बातों पर प्रकाश डाल सके जो धवलादि में भी व्यवस्थित नहीं पायी जाती, जैसे धवला से पूर्व कीटीकायें व टीकाकार आदि । वे कैसे प्रामाणिक और निर्भीक तथा अपनी कमजोरियों को स्वीकार कर लेने वाले निष्पक्ष ऐतिहासिक थे वह उनके उस वाक्य पर से सहज ही जाना जा सकता है जहां उन्होंने साफ- साफ कह दिया है कि १ मा. दि. जै. ग्रंथमाला नं.१३, भूमिका पृ. २
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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