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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका a तेवीस अधिकारों का भीमंगलाचरण कहा है। यथा - उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खंडाणं ? कथं वेणा आदीए उत्तं मंगलं सेस- दो - खंडाणं होदि ? ण, कदीए आदिम्हि उत्तस्स एदस्स मंगलस्स सेस - तेबीस - अणि योगद्दारेसु पउत्ति - दंसणादो । ..... १२६ ऐसी अवस्था में णमोकार मंत्ररूप मंगलाचरण के सत्प्ररूपणा के आदि मेंहोते हुए भी उसके समस्त जीवस्थान के मंगलाचरण समझे जाने में कोई आपत्ति तो नहीं होना चाहिये । २. यथार्थतः तो वह मंगलाचरण सत्प्ररूपणा का ही है। आचार्य पुष्पदन्त ने उस मंगलाचरण को आदि लेकर सत्प्ररूपणा मात्र के ही सूत्रों की रचनाकी है । यदि हम इसे भूतबलि आचार्य की आगे की रचना से पृथक कर लें तो पुष्पदन्त की रचना उस मंगलसूत्र सहित सत्प्ररूपणा ही तो कहलायगी । जीवस्थान का प्रथम अंश यही सत्प्ररूपणा ही तो है । ३. यदि इस अंश को सत्प्ररूपणा न कह कर जीवस्थान का एक अंश कहते तो पाठक उससे क्या समझते ? इस नाम से उसके विषय पर क्या प्रकाश पड़ता ? वह एक अज्ञात कुलशील और निरुपयोगी शीर्षक सिद्ध होता । ४. हमने जो ग्रंथ का विषय-विभाग किया है वह मूलग्रन्थ पुष्पदन्त और भूतबलिकृत षट्खंडागम की अपेक्षा से है, और उसमें सत्प्ररूपणा से पूर्व किसी और विषय विभाग के लिये स्थान नहीं है | मंगलाचरण के पश्चात् छह सात सूत्रों में सत्प्ररूपणा का यथोचित स्थान और कार्य बतलाने के लिये चौदह जीवसमासों और आठ अनुयोग द्वारों का उल्लेखमात्र करके सत्प्ररूपणा का विवेचन प्रारम्भ कर दिया गया है। धवलाटीका के कर्ता ने उन सूत्रों की व्याख्या के प्रसंग से जीव स्थान की उत्थानिका का कुछ विस्तार से वर्णन कर डाला तो इससे क्या उस विभाग को सत्प्ररूपणा से अलग निर्दिष्ट करने के लिये एक नये शीर्षक की आवश्यकता उत्पन्न हो गई ? ऐसा हमें जान नहीं पड़ता । षट्खंडागम के भीतर जो सूत्रकार द्वारा निर्दिष्ट विषय विभाग हैं उन्हीं के अनुसार विभाग रखना हमनें उचित समझा है । धवलाकार ने भी आदि से लगाकर १७७ सूत्रों की क्रमसंख्या लगातार रखी है और उनकी एक ही सिलसिले से टीका की है जिसे उन्होंने 'संतसुत्तविवरण' कहा है जैसा कि प्रस्तुत भाग के प्रारंभिक वाक्य से स्पष्ट है । यथा - 'संपहि संत-सुत्त- विवरण - समत्ताणंतरं तेसिं परूवणं भणिस्सामो ' ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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