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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
___कोपण के समीप ही पाल्कीगुण्ड्डु नामक पहाड़ी पर, अशोक के शिलालेख के पास बरांगचरित के कर्ता जटासिंहनन्दि के चरणचिन्ह भी, पुरानी कन्नड में लेखसहित, अंकित है। (वरांगचरित, भूमिका पृ.१७ आदि)
इस प्रकार यह स्थान बड़ा प्राचीन, इतिहास प्रसिद्ध और जैनधर्म के लिये बहुत महत्वपूर्ण रहा है ।
सत्प्ररूपणा विभाग (पु.२) षट्खंडागम की पूर्व प्रकाशित प्रथम पुस्तक तथा अब प्रकाशित होने वाली द्वितीय पुस्तक को हमने ‘सत्प्ररूपणा' के नाम से प्रकट किया है। प्रथम जिल्द के प्रकाशित होने पर शंका उठाई गई है कि उस ग्रंथ को सत्प्ररूपणा न कहकर 'जीवस्थान-प्रथम अंश' ऐसा लिखना चाहिये था । इसके उन्होंने दो कारण बतलाये हैं । एक तो यह कि इस विभाग के भीतर जो मंगचाचरण है वह केवल सत्प्ररूपणा का नहीं है बल्कि समस्त जीवस्थान खंडका है और दूसरे यह कि इसके आदि में जो विषय-विवरण पाया जाता है वह सत्प्ररूपणा के बाहर का है, सत्प्ररूपणा का अंग नहीं २ । इन दोनों आपत्तियों पर विचार करके भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हमने जो इस विभाग को 'जीवस्थान का प्रथम अंश' न कहकर 'सत्प्ररूपणा' कहा है वही ठीक है। इसके कारण निम्न प्रकार है -
१. यह बात ठीक है कि आदि का मंगलाचरण केवल सत्प्ररूपणाका ही नहीं, किन्तु समस्त जीवस्थान का है । पर, अवान्तर विभागों की दृष्टि से सत्प्ररूपणा के भीतर उसे लेने से भी वह समस्त जीवस्थान का बना रहता है । सब ग्रंथों में मंगलाचरण की यही व्यवस्था पायी जाती है कि वह ग्रंथ के आदि में किया जाता है और जो भी खंड, स्कंध, सर्ग, अध्याय व विषय विभाग आदि में हो उसी के अन्तर्गत किये जाने पर भी वह समस्त ग्रंथ का समझा जाता है । समस्त ग्रंथ पर उसका अधिकार प्रकट करने के लिये उसका एक स्वतंत्र विभाग नहीं बनाया जाता । अतएव जीवस्थान ही क्यों, जहां तक ग्रन्थ में सूत्रकारकृत दुसरा मंगलाचरण न पाया जावे वहां तक उसी मंगलाचरण का अधिकार समझना चाहिये, चाहे विषय की दृष्टि से ग्रंथ में कितने ही विभाग क्यों न पड़ गये हों । स्वयं धवलाकार ने आगे वेदना खंड व कृति अनुयोग द्वार के आदि में आये हुए मंगलाचरण को शेष दोनों खंडों
१ देखो जैनसि. भा. ५, २ पृ. ११० २ अनेकान्त, वर्ष २, किरण ३, पृ. २०१