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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१११ प्रशंसा की गई है । पर उनसे उनके परस्पर सम्बन्ध, समय व धवलग्रंथ या उसकी प्रति से किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं होता। अतएव इन बातों की जानकारी के लिए अन्यत्र खोज करना आवश्यक प्रतीत हुआ।
श्रवणवेल्गुल के अनेक शिलालेखों में पद्मनन्दि मुनि के उल्लेख आये हैं। पर सब जगह एक ही पद्मनन्दि से तात्पर्य नहीं है । उन लेखों से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न काल में पद्मनन्दि नाम व उपाधिधारी अनेक मुनि आचार्य हुए हैं। किन्तु लेख नं. ४० (६४) में हमारे प्रस्तुत पद्यनन्दिसे अभिप्राय रखने वाला उल्लेख ज्ञात होता है, क्योंकि, उसमें पद्यनन्दि सैद्धान्तिकके शिष्य कुलभूषण और उनके शिष्य कुलचन्दका भी उल्लेख पाया जाता है। वह उल्लेख इस प्रकार है -
अविद्वकर्णादिक पद्यनन्दी सैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके। कौमारदेवव्रतिताप्रसिद्धिर्जीयात्तु सो ज्ञाननिधिः सधीरः॥ तच्छिप्य: कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारांनिधिस्सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नवविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रंथकारः प्रभाचन्द्राख्यो मुनिराजपंडितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः॥ तस्य श्रीकुलभूषणाख्यसुमुनेश्शिप्यो विनेयस्तुतस्सद्वृत्तः कुलचन्द्र देवमुनिपस्सिद्वान्तविद्यानिधिः ।
यहां पद्यनन्दि, कुलभूषण और कुलचन्द्र के बीच गुरु शिष्य-परम्परा का स्पष्ट उल्लेख है । पद्यनन्दिको सैद्धान्तिक ज्ञाननिधि और सधीर कहा है । कुलभूषण को चारिद्धवारांनिधि: और सिद्धान्ताम्बुधिपारग, तथा कुलचन्द्र को विनेय, सवृत्त और सिद्धान्तविद्यानिधि कहा है। इस परम्परा और इन विशेषणों से उनके धवला-प्रति के अन्तर्गत प्रशस्ति में उल्लिखित मुनियों से अभिन्न होने में कोई सन्देह नहीं रहता । शिलालेखद्वारा पद्यनन्दिक गुणों में इतना और विशेष जाना जाता है कि वे अविद्धकर्ण थे अर्थात् कर्णच्छेदन संस्कार होने से पूर्व ही बहुत बालपन में वे दीक्षित हो गये थे और इसलिए कौमारदेवव्रती भी कहलाते थे । तथा यह भी जाना जाता है कि उनके एक और शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जो शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथित तर्कग्रन्थकार थे।
इसी शिलालेख से इन मुनियों के संघ व गण तथा आगे पीछे की कुछ और गुरुपरम्परा का भी ज्ञान हो जाता है । लेखमें गौतमादि, भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त के