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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
संततशांतभावनेय पावनभोगनियोग (वाणि) वाक्वांतेय चित्तवृत्तियोलविं नल (विं गड मोहनां) गरू - पं तळेदं गडं प्रचुरपंकजशोभितपद्यणंदिसि - द्वान्तमुनीन्द्रचंद्रनुदयं बुधकैरवषंडमंडनम् ॥१॥ मंत्रणमोक्षसद्गुणगणाब्धिय वृद्धिगे चंद्रनंते वा - कांतेय चित्तवल्लिपदपंकजदृप्तबुधालिहृत्सरो - जांतररागरंजितमनं कुलभूषणदिव्यसेव्यसै - द्वांतमुनीन्द्ररुर्जितयशोज्वलजंगमतीर्थकल्परू ॥२॥ संततकालकायमतिसच्चरितं दिनदि दिनक्के वीयं तळेदंदु मिक्क नियमंगळनांतुविवेकबोध दोहं तवे कंतु मन्युगिदे सच्चरितं कुलचन्द्रदेव सैद्धांतमुनीन्द्ररुर्जितयशोज्वलजंगमतीर्थरुद्भवम् ॥३॥ इसका हिन्दी में सारानुवाद हम इस प्रकार करते हैं -
श्रीपद्मनन्दि सिद्धान्तमुनीन्द्ररुपी चन्द्रमाका उदय विद्वद्गणरुपी कुमुदिनी समूह का मंडन था । वे प्रफुल्ल कमल के समान सुशोभित थे, तथा उनके मन में निरंतर शान्त भावना
और पावन सुख-भोग में निमग्न सरस्वती देवी का निवास होने से वे सहज ही सुंदर शरीन के अधिकारी हो गये थे।
वे दिव्य और सेव्य कुलभूषण सिद्धान्तमुनीन्द्र अपने ऊर्जित यश से उज्जवल होने के कारण जंगम तीर्थ के समान थे। मंत्रण, मोक्ष और सद्गुणों के समुद्र को बढ़ाने वे चन्द्र के समान थे, तथा सरस्वती देवी के चित्तरुपी वल्ली के पदपंकज (के निवास) से गर्वयुक्त विद्वन्समुदाय के हृदय कमल के अंतर राग से उनका मन रंजायमान था ।
ऊर्जित यश से उज्जवल कुलचन्द्र सैद्धान्तमुनीन्द्र का उद्भव जंगमतीर्थ के समान था । निरन्तर काल में काय और मन से सच्चारित्रवान्, दिनोंदिन शक्तिमान् और नियमवान् होते हुए उन्होंने विवेक बुद्धि द्वारा ज्ञान-दोहन करके कामदेव को दूर रखा । यह सच्चारित्र ही कामदेव के क्रोध से बचने का एकमात्र मार्ग है।
इस प्रकार इन तीन कनाड़ी पद्यों की प्रशस्ति में क्रमश: पद्मनन्दि सिद्धान्तमुनीन्द्र, कुलभूषण सिद्धान्तमुनीन्द्र और कुलचन्द्र सिद्धान्तमुनीन्द्र की विद्वत्ता, बुद्धि और चरित्र की