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षखंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१०९ जीवसमासों और मार्गणाओं का विशेष विवरण है। सूत्रों की भाषा पूर्णतः प्राकृत है। टीका में जगह जगह उद्धृत पूर्वाचार्यों के पद्य २१६ हैं जिनमें केवल १७ संस्कृत में
और शेष प्राकृत में हैं, टीका का कोई तृतीयांश प्राकृत में और शेष संस्कृत में हैं। यह सब प्राकृत प्रायः वही शौरसेनी है जिसमें कुन्दकुन्दादि आचार्यों के ग्रंथ रचे पाये जाते हैं। प्राकृत और संस्कृत दोनों की शैली अत्यंत सुन्दर, परिमार्जित और प्रौढ़ है।
ताड़पत्रीय प्रति के लेखनकाल का निर्णय सत्प्ररूपणा के अन्त की प्रशस्ति
धवल सिद्धान्त की प्राप्त हलिखित प्रतियों में सत्प्ररूपणा विवरण के अन्त में निम्न कनाड़ी पाठ पाया जाता है । .
संततशांतभावनद: पावनभोगनियोग वाकांतेय चित्तवृत्तियलविं नललंदनं गरुपं तडिदं गजं 'प्परिपोगेज सोन्नतपद्यणं दिसिद्धांतमुनींद्रचन्द्रनुदयं बुधकै रवषंडमंडनं मंतणमेणोसुद्गुणगणक भेदवृद्धि अनन्तनोन्त' वाक्कांतेय चित्तवल्लीय पदपिण ' दर्पबुधालि हृत्सरोजांतररागरंजितदिनं कुलभूषण' दिग्यसैद्धांन्त मुनींद्रनुज्वलयशोजंगमतीर्थमलरु संततकालकायमतिसच्चरितं दिनदिं दिनक्के वीर्य तउतिदश्य वियमईमैमेयो लांतवविठ्ठमोहदाहं तवे कंतु मुन्तुगिदे सच्चरितर्कुलचन्द्रदेवसैद्धान्तमुनीन्द्ररुर्जितयशोज्वलजंगमतीर्थमल्लरु ७
___मैने यह कनाड़ी पाठ अपने सहयोगी मित्र डाक्टर ए.एन. उपाध्याय प्रोफे सर राजाराम कालेज कोल्हापुर, जिनकी मातृभाषा भी कनाड़ी है, के पास संशोधनार्थ भेजा था। उन्होंने यह कार्य अपने कालेज के कनाड़ी भाषा के प्रोफेसर श्री के.जी. कुंदनगार महोदय के द्वारा कराकर मेरे पास भेजने की कृपा की। इसप्रकार जो संशोधित कनाड़ी पाठ और उसका अनुवाद मुझे प्राप्त हुआ । वह निम्न प्रकार है । पाठक देखेंगे कि उक्त पाठ पर से निम्न कनाड़ी पद्य सुसंशोधित कर निकालने में संशोधनों ने कितना अधिक परिश्रम किया है -
१ प्राप्त प्रतियों में इस प्रशस्ति में अनेक पाठभेद पाये जाते हैं। यहाँ पर सहारनपुर की प्रति के अनुसार पाठ रखा गया है जिसका मिलान हमें वीरसेवा मंदिर के अधिष्ठाता पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार के द्वारा प्राप्त हो सका । केवल हमारी अ. प्रति में जो अधिक पाठ पाये जाते हैं वे टिप्पण में दिये गये हैं । २ अनन्तज्वनोन्त । ३ पदप्पिणनदप । ४ प्रहत् । ५ दिव्यसेव्य । ६ तीर्थदमलयस्स्थें । ७मल्लरूइरू।