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निष्कर्ष -
अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी के वचनों की उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने द्वादशांग श्रुत के रूप में ग्रंथ रचना की जिसका ज्ञान आचार्य परम्परासे क्रमशः कम होते हुए धरसेनाचार्य तक आया। उन्होंने बारहवें अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत पूर्वो के तथा पांचवे अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति के कुछ अंशों को पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों को पढ़ाया और उन्होंने वीर निर्वाण के पश्चात् ७ वीं शताब्दि के लगभग सत्कर्मपाहुड की छह हजार सूत्रों में रचना की। इसी की प्रसिद्धि षट्खंडागम नाम से हुई। इसकी टीकाएं क्रमशः कुन्दकुन्द, शामकुंड, तम्बुलूर, समन्तभद्र और बप्पदेवने बनाई, ऐसा कहा जाता है, पर ये टीकाएं अब मिलती नहीं हैं। इनके अन्तिम टीकाकार वीरसेनाचार्य हुए जिन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध टीका धवला की रचना शक ७३८ कार्तिक शुक्ल १३ को पूरी की। यह टीका ७२ हजार लोक प्रमाण है।
षट्खंडागमका छठवां खंड महाबंध है। जिसकी रचना स्वयं भूतबलि आचार्य ने बहुत विस्तार से की थी। अतएव पंचिकादिक को छोड़ उस पर विशेष टीकाएं नहीं रची गई। इसी महाबंध की प्रसिद्धि महाधवल के नाम से है जिसका प्रमाण ३० या ४० हजार कहा जाता है।
धरसेनाचार्य के समय के लगभग एक ओर आचार्य गुणधर हुए जिन्हें भी द्वादशांग श्रुत का कुछ ज्ञान था। उन्होंने कषायप्राभृत की रचना की। इसका आर्यमंक्षु
और नागहस्तिने व्याख्यान किया और यतिवृषभ आचार्य ने चूर्णिसूत्र रचे । इस पर भी वीरसेनाचार्य ने टीका लिखी। किन्तु वे उसे २० हजार प्रमाण लिखकर ही स्वर्गवासी हुए। तब उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्य ने ४० हजार प्रमाण और लिखकर उसे शक ७५९ में पूरा किया। इस टीका का नाम जयधवला है और वह ६० हजार श्लोक प्रमाण है।
इन दोनों या तीनों महाग्रंथों की केवल एकमात्र प्रति ताड़पत्र पर शेष रही थी जो सैकड़ों वर्षों से मूडविद्री के भंडार में बन्द थी। गत २०-२५ वर्षों में उनमें से धवला व जयधवला की प्रतिलिपियां किसी प्रकार बाहर निकल पाई हैं। महाबंध या महाधवल अब भी दुष्प्राय है। उनमें से धवला के प्रथम अंश का अब प्रकाशन हो रहा है। इस अंश में द्वादशांगवाणी व ग्रंथ रचना के इतिहास के अतिरिक्त सत्प्ररूपणा अर्थात्