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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ११२ पश्चात् उसी अन्वय में हुए पद्यनन्दि, कुन्दकुन्द, उमास्वाति गृद्धपिच्छ, उनके शिष्य बलाकपिच्छ, उसी आचार्य परम्परा में समन्तभद्र, फिर देवनन्दि जितेन्द्रबुद्धि पूज्यपाद और फिर अकलंकके उल्लेख के पश्चात् कहा गया है कि उक्त मुनीन्द्र सन्तति के उत्पन्न करने वापले मूलसंघ में फिर नन्दिगण और उसमें देशीगण नामका प्रभेद हो गया । इस गण में गोल्लाचार्य नामके प्रसिद्ध मनि हए । ये गोल्लदेश के अधिपति थे। किन्तु, किसी कारण वश संसार से भयभीत होकर उन्होंने दीक्षा धारण कर ली थी। उनके शिष्य श्रीमत् त्रैकाल्ययोगी हुए और उनके शिष्य हुए उपर्युक्त अविद्धकर्ण पद्यनन्दि सैद्धान्तिक कौमारदेव, जो इस प्रकार मूलसंघ नन्दिगणान्तर्गत देशीगण के सिद्ध होते हैं। लेखमें पद्यनन्दि, कुलभूषण और कुलचन्द्र से आगे की परम्परा का वर्णन इस प्रकार दिया गया है : कुलचन्द्रदेव के शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंने कोल्लापुर (कोल्हापुर) में तीर्थ स्थापित किया । वे भी राद्धान्तार्णवपारगामी और चारित्रचक्रेश्वर थे, तथा उनके श्रावक शिष्य थे सामन्त केदार नाकरस, सामन्त निम्बदेव और सामन्त कामदेव । माघनन्दि के शिष्य हुए - गंडविमुक्त जिनके एक छात्र सेनापति भरत थे, व दूसरे शिष्य भानुकीर्ति और देवकीर्ति । गंडविमुक्तदेव के सधर्म भूतकीर्ति विद्यमुनि थे, जिन्होंने विद्वानों को भी चमत्कृत करने वाले अनुलोम-प्रतिलोम काव्य राघव-पांडवीय की रचना करके निर्मल कीर्ति प्राप्त की थी और देवेन्द्र जैसे विपक्ष वादियों को परास्त किया था । श्रुतकीर्तिकी प्रशंसा के ये दोनों पद्य कनाड़ी काव्य पम्परामायण में भी पाये जाते हैं। विपक्ष सैद्धान्तिक से संभव है उन्हीं देवेन्द्र से तात्पर्य हो, जिनके विषय में श्वेताम्बर ग्रन्थ पभावकचरित में कहा गयाहै कि इन्होंने वि.सं. १९८१ में दि. आचार्य कुमुदचन्द्र को बाद में परास्त किया था। इन्हीं के अग्रज (सधर्म) थे कनकनन्दि और देवचन्द्र । कनकनन्दिने बौद्धख, चार्वाक और मीमांसकों को परास्त किया था, और देवचन्द्र भट्टारकों के अग्रणी तथा वेताल झोट्टिग आदि भूत पिशाचों को वशीभूत करने वाले बड़े मंत्रवादीथे। उनके अन्य सधर्म थे माघनन्दि त्रैविद्यदेव. देवकीर्ति पंडितदेवके शिष्य शुभचन्द्र विद्यदेव, गंडविमुक्त वादिचतुर्मुख रामचन्द्र विद्यदेव और वादिवज्रांकुश अकलंक, त्रैविद्यदेव । गंडविमुक्त देव के अन्य श्रावक शिष्य थे माणिक्य भंडारी मरिया ने दंडनायक, महाप्रधान सर्वाधिकारी ज्येष्ठ दंडनायक भरतिमय्य हेगड़े बृचिमय्यंगलु और जगदेकदानी हेगडे कोरय्य । इन उल्लेखों से हमें पाद्यनन्दि कुलभूषणके संघ व गण के अतिरिक्त उनकी पूर्वापर
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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