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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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है। उद्घृत पद्यों की संख्या २१६ है जिनमें १७ संस्कृत में और शेष सब प्राकृत में हैं। इससे अनुमान किया जा सकता है कि वीरसेनाचार्य के सन्मुख जो जैन साहित्य उपस्थित था उसका अधिकांश भाग प्राकृत में ही था । किन्तु उनके समय के लगभग, जैन साहित्य में संस्कृत का प्राधान्य हो गया और उनकी टीका में जो संस्कृत - प्राकृत का परिमाण पाया जाता है वह प्राय: उन दोनों भाषाओं की तात्कालिक आपेक्षिक प्रबलता का द्योतक है। इस समय से प्राकृत का बल घट चला और संस्कृत का बढ़ा, यहां तक कि आजकल जैनियों में प्राकृत भाषा के पठन-पाठन की बहुत ही मन्दता है। दिगम्बर समाज के विद्यालयों में तो व्यवस्थित रूप से प्राकृत पढ़ाने की सर्वथा व्यवस्था रही ही नहीं। ऐसी अवस्था में प्रस्तुत ग्रंथ का परिचय कराते समय प्राकृत भाषा का परिचय करा देना भी उचित प्रतीत होता है। प्राकृत साहित्य में प्राकृत भाषा मुख्यतः पांच प्रकार की पाई जाती है - मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश ।
मागधी
महावीर स्वामी के समय में अर्थात् आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जो भाषा मगध प्रांत में प्रचलित थी वह मागधी कहलाती है । इस भाषा का कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं पाया जाता। किंतु प्राकृत व्याकरणों में इस भाषा का स्वरूप बतलाया गया है, और कुछ शिलालेखों और नाटकों में इस भाषा के उदाहरण मिलते हैं जिनपर से इस भाषा की तीन विशेषताएं स्पष्ट समझ में आ जाती है -
ले
१. र के स्थान में ल, जैसे, राजा-लाजा, नगर-णगल,
२. श, ष और स के स्थान पर श । जैसे, शम- शम, दासी - दाशी, मनुष - मनुश। ३. संज्ञाओं के कर्ताकारक एकवचन पुल्लिंग रूप में ए । जैसे, देव:- देवे, नर:
उदाहरण
-
अले कुंभीलआ ! कहेहि, कहिं तुए एशे मणिबंधणुविणणामहेए लाअकीलए अंगुली अए शमाशदिए । (शकुंतला)
'अरे कुंभीलक ! कह, कहां तूने इस मणिबंध और उत्कीर्ण नाम राजकीय अंगुली को पाया' ।
अर्धमागधी
दूसरे प्रकार की प्राकृत अर्धमागधी इस कारण कहलाई कि उसमें मागधी के