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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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आधे लक्षण पाये जाते हैं और क्योंकि, संभवत: वह आधे मगध देश में प्रचलित थी । इसी भाषा में प्राचीन जैन सूत्रों की रचना हुई थी और इसका रूप अव श्वेताम्बरीय सूत्र - ग्रंथों में पाया जाता है, इसीलिये डा. याकोवी ने इसे जैन प्राकृत कहा है। इसमें ष और स के स्थान परश न होकर सर्वत्र सही पाया जाता है, र के स्थान पर ल तथा कर्ता कारक में 'ए' विकल्प से होता है, अर्थात् कहीं होता है और कहीं नहीं होता, और अधिकरण कारक का रूप 'ए' व 'म्मि' के अतिरिक्त 'अंसि' लगाकर भी बनाया जाता है ।
उदाहरण :
हा माणं हणिया य वीरे लोभस्स पासे निरयं महंतं ।
तम्हा हि वीरे विरओ वहाओ छिंदेज्ज सोयं लहुभूयगामी ॥ ( आचारांग ) क्रोधदि व मान का हनन करके महावीर ने लोभ के महान् पाश को तोड़ डाला । इस प्रकार वीर वध से विरत होकर भूतगामी शोक का छिन्दन करें ।
सुसाणंसि वा सुन्नागारेंसि वा गिरिगुहंसि वा रुक्खमूलम्मि वा । (आचारांग) श्मशान में या शून्यागार में या गिरिगुफा में व वृक्ष के मूल में (साधु निवास करे) ये मागधी की प्रवृत्तियां अर्धमागधी में भी धीरे-धीरे कम होती गई हैं । शौरसेनी -
प्राचीन शूरसेन अर्थात् मथुरा के आसपास के प्रदेश की भाषा का नाम शौरसेनी है । वैयाकरणों ने इस भाषा का जैसा स्वरूप बतलाया है वैसा संस्कृत नाटकों में कहीं कहीं मिलता है, पर इसका स्वतंत्र साहित्य दिगम्बर जैन ग्रंथों में ही पाया जाता है । प्रवचनसारादि कुंदकुंदाचार्य के ग्रंथ इसी प्राकृत में है । कहा जा सकता है कि यह दिगम्बर जैनियों की मुख्य प्राचीन साहित्यिक भाषा है । किन्तु इस भाषा का रूप कुछ विशेषताओं को लिये हुए होने से उसका वैयाकरणों की शौरसेनी से पृथक् निर्देश करने के हेतु उसे 'जैन शौरसेनी' कहने का रिवाज हो गया है । जैसा कि आगे चलकर बतलाया जायगा, प्रस्तुत ग्रंथ की प्राकृत मुख्यत: यही है ।
शौरसेनी की विशेषताएं ये हैं कि उसमें र का ल कदाचित् ही होता है, तीनों सकारों के स्थान पर स ही होता है, और कर्ताकारक पुल्लिंग एकवचन में ओ होता है। इसकी अन्य विशेषताएं ये हैं कि शब्दों के मध्य में त के स्थान पर द, थ के स्थान पर ध, भ के