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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका 'एसो संतकम्म-पाहुड-उबएसो । कसायपाहुड-उवरसो पुण ....... आगे चलकर पृष्ट २२१ पर शंका की गई कि इनमें से एक वचन सूत्र और दूसरा असूत्र होना चाहिये और यह संभव भी है, क्योंकि, ये जिनेन्द्र वचन नहीं हैं किन्तु आचार्य के वचन हैं । इसका समाधान किया गया है कि नहीं, सत्कर्म और कषायपाहुड दोनों ही सूत्र हैं, क्योंकि उनमें तीर्थकरद्वारा कथित, गणधर द्वारा रचित तथा आचार्य परंपरा से आगत अर्थ का ही ग्रंथन किया गया है । यथा - 'आइरियकहियाणं संतकम्म-कसाय-पाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदिचे ण . (पृ. २२१) यहां स्पष्टतः कषाय पाहुड के साथ सत्कर्मपाहुड से प्रस्तुत समस्त षट्खंडागम से ही प्रयोजन हो सकता है और यह ठीक भी है, क्योंकि, पूर्वो की रचना में उक्त चौबीस अनुयोगद्वारों का नाम महाकर्मप्रकृतिपाहुड है । उसी का धरसेन गुरु ने पुष्पदन्त भूतबलि द्वारा उद्वार कराया है, जैसा कि जीवट्ठाण के अन्त व खुद्धाबंध के आदि की एक गाथा से प्रकट होता है - जयउ धरसेणणाहो जेण महाकम्मपयडिपाहुडसेलो।। बुद्धिसिरेणुद्वरिओ समप्पिओ पुप्फयंतस्स ॥ (धवला अ. ४७५) महाकर्मप्रकृति और सत्कर्म संज्ञाएं एक ही अर्थ की द्योतक हैं । अत: सिद्ध होता है कि इस समस्त षट्खंडागम का नाम सत्कर्मप्राभृत है । और चूंकि इसका बहुभाग धवला टीका में ग्रथित है, अत: समस्त धवला को भी सत्कर्मप्राभृत कहना अनुचित नहीं। उसी प्रकार महाबंध या निबन्धनादि अठारह अधिकार भी इसी के एक खंड होने से सत्कर्म कहे जा सकते हैं। और जिस प्रकार खंड विभाग की दृष्टि से कृतिका वेदना खंड में, और स्पर्श, कर्म, प्रकृति तथा बंधन के प्रथम भेद बंध का वर्गणाखंड में अन्तर्भाव कर लिया गया है , उसी प्रकार निबन्धनादि अठारह अधिकारों का महाबंध नामक खंड में अन्तर्भाव अनुमान किया जा सकता है जिससे महाधवलान्तर्गत उक्त पंचिका के कथन की सार्थकता सिद्ध हो जाती है, क्योंकि, सत्कर्म का एक विभाग होने से वह भी सत्कर्म कहा जा सकता है। सत्कर्मप्राभृत व षखंडागम तथा उसकी टीका धवला की इस रचना को देखने से ज्ञात होता है कि उसके मुख्यत: दो विभाग हैं । प्रथम विभाग के अन्तर्गत जीवट्ठाण, खुद्दाबंध व बंध स्वामित्वविचय हैं । इनका मंगलाचरण, श्रुतावतार आदि एक ही बार जीवट्ठाण, खुद्दाबंध के आदि में किया गया है और उन सबका विषय भी जीव या बंधक की
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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