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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका मुख्यता से है। जीवट्ठाण में गुणस्थान और मार्गणाओं की अपेक्षा सत्, संख्या आदि रूप से जीवतत्व का विचार किया गया है । खुद्दाबंध में सामान्य की अपेक्षा बंधक, और बंधस्वामित्वविचय में विशेष की अपेक्षा बंधक का विवरण है। दूसरे विभाग के आदि में पुन: मंगलाचरण व श्रुतावतार दिया गया है, और उसमें यथार्थत: कृति, वेदना आदि चौबीस अधिकारों का क्रमशः वर्णन किया गया है और इस समस्त विभाग में प्रधानता से कर्मो की समस्त दशाओं का विवरण होने से उसकी विशेष संज्ञा सत्कर्मप्राभूत है । इन चौबीसों में से द्वितीय अधिकार वेदना का विस्तार से वर्णन किये जाने के कारण उसे प्रधानता प्राप्त हो गई और उसके नाम से चौथा खंड खड़ा हो गया। बंधन के तीसरे भेद बंधनीय में वर्गणाओं का विस्तार से वर्णन आया और उसके महत्व के कारण वर्गणा नाम का पांचवां खंड हो गया । इसी बंधन के चौथे भेद बंधविधान के खूब विस्तार से वर्णन किये जाने के कारण उसका महाबंध नामक छठवां खंड बन गया और शेष अठारह अधिकार उन्हीं के आजूबाजू की वस्तु रह गये । ... धवला की रचना के पश्चात् उसके सबसे बड़े पारगामी विद्वान् नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने इन दो ही विभागों को ध्यान में रखकर जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड की रचना की, ऐसा प्रतीत होता है । तथा उसके छहों खंडों का ख्याल करके उन्होंने गर्व के साथ कहा है कि 'जिस प्रकार एक चक्रवर्ती अपने चक्र के द्वारा छह खंड पृथिवी को निर्विघ्नरूप से अपने वश में कर लेता है, उसी प्रकार अपने मति रूपी चक्र द्वारा मैंने छह खंड सिद्धान्त का सम्यक प्रकार से साधन कर लिया' - जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण। तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ ३९७ ॥ गो.क. इससे आचार्य नेमिचंद्र को सिद्धान्तचक्रवर्ती का पद मिल गया और तभी से उक्त पूरे सिद्धान्त के ज्ञाता को इस पदवी से विभूषित करने की प्रथा चल पड़ी। जो इसके केवल प्रथम तीन खंडों में पारंगत होते थे, उन्हें ही जान पड़ता है, त्रैविद्यदेव का पद दिया जाता था। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में अनेक मुनियों के नाम इन पदवियों से अलंकृत पाये जाते हैं । इन उपाधियों ने वीरसेन से पूर्व की सूत्राचार्य, उच्चारणाचार्य, व्याख्यानाचार्य, निक्षेपाचार्य व महावाचक की पदवियों का सर्वथा स्थान ले लिया। किंतु थोड़े ही काल में गोम्मटसारने इन सिद्धान्तों का भी स्थान ले लिया और उनका पठन-पाठन सर्वथा रूक गया। आज कई शताब्दियों के पश्चात् इनके सुप्रचार का पुन: सुअवसर मिल रहा है ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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