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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका इसका भावार्थ यह है कि महाकर्मप्रकृति पाहुड के चौबीस अनुयोग में से कृति और वेदना का वेदना खंड में, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बंधन के बंध और बंधनीय का वर्गणा-खंड और बंधविधान नामक अनुयोद्वार का खुद्दाबंध में विस्तार से वर्णन किया जा चुका है । इनसे शेष अठारह अनुयोगद्वार सब सत्कर्म में प्ररूपित किये गये हैं। तो भी उनके अतिगंभीर होने से उसके विषम पदों का अर्थ संक्षेप में पंचिकारूप से यहां कहा जाता है। ___ इससे जान पड़ा कि महाधवल का मूलग्रंथ संतकम्म (सत्कर्म) नामका है और उसमें महाकर्मप्रकृतिपाहुड के चौबीस अनुयोग द्वारों में से वेदना और वर्गणाखंड में वर्णित प्रथम छह को छोड़कर शेष निबंधनादि अठारह अनुयोगद्वारों का प्ररूपण है । पहाधवल या सत्कर्म की उक्त पंचिका कब की और किसकी है ? संभवत: यह वही पंचिका है जिसको इन्द्रनन्दिने समन्तभद्रसे भी पूर्व तुम्बुलूराचार्यद्वारा सात हजार श्लोक प्रमाण विरचित कहा है । (देखो ऊपर पृ. ४९) किंतु जयधवला में एक स्थान पर स्पष्ट कहा गया है कि सत्कर्म महाधिकार में कृति, वेदनादि चौबीस अनुयोगद्वार प्रतिबद्ध हैं और उनमें उदय नामक अर्थाधिकार प्रकृति सहित स्थिति; अनुभाग और प्रदेशों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य उदय के प्ररूपण में व्यापार करता है । यथा - ___ संतकम्ममहाहियारे कदि-वेदणादि-चउवीसमणियोगद्दारेसु पडिबद्धेसु उदओ णाम अथाहियारो हिदि-अणुभाग-पदेसाणं पयडिसमण्णियाणमुक्कस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णुदयपरूवणे य ववारो । जयध. अ. ५१२. इससे जाना जाता है कि कृति, वेदनादि चौबीस अनुयोगद्वारा का ही समष्टि रूप से सत्कर्म महाधिकार नाम है और चूंकि ये चौबीस अधिकार तीसरे अर्थात् बंधस्वामित्वविचय के पश्चात् क्रम से वर्णन किये गये हैं, अत: उस समस्त विभाग अर्थात् अन्तिम तीन खंडों का नाम संतकम्म या सत्कर्मपाहुड महाधिकार है। किन्तु, जैसा आगे चलकर ज्ञात होगा, इन्हीं चौबीस अनुयोग द्वारों से जीवट्ठाण के थोड़े से भाग को छोड़कर शेष समस्त षट्खंडागम की उत्पत्ति हुई है । अत: जयधवला के उल्लेख पर से इस समस्त ग्रंथ का नाम भी सत्कर्म महाधिकार सिद्ध होता है । इस अनुमान की पुष्टि प्रस्तुत ग्रंथ के दो उल्लेखों से अच्छी तरह हो जाती है । पृ. २१७ पर कषायपाहुड और सत्कर्मपाहुड के उपदेश में मतभेद का उल्लेख किया गया है। यथा -
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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