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________________ ८२ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका वाक्य है और पूर्व - परम्परा से आया है ' । इस प्रकार सभी आगम को सिद्धान्त क सकते हैं किन्तु सभी सिद्धान्त आगम नहीं कहला सकते । सिद्धान्त सामान्य संज्ञा है और आगम विशेष । इस विवेचन के अनुसार प्रस्तुत ग्रंथ पूर्णरूप से आगम सिद्धान्त ही है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त और भूतबलि को वे ही सिद्धान्त सिखाये जो उन्हें उनसे पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्राप्त हुए और जिनकी परम्परा महावीरस्वामी तक पहुंचती है । पुष्पदन्त और भूतबलि ने भी उन्हीं आगम सिद्धान्तों को पुस्तकारूढ़ किया और टीकाकार ने भी उनका विवेचन पूर्व मान्यताओं और पूर्व आचार्यों के उपदेशों के अनुसार ही किया है जैसा कि उनकी टीका में स्थान स्थान पर प्रकट है । आगम की, यह भी विशेषता हैं कि उसमें हेतुवाद नहीं चलता क्योंकि, आगम अनुमान आदि की अपेक्षा नहीं रखता किन्तु स्वयं प्रत्यक्ष के बराबर क प्रमाण माना जाता है " पुष्पदन्त व भूतबलि की रचना तथा उस पर वीरसेन की टीका इसी पूर्व परम्परा की मर्यादा को लिये हुए है इसीलिये इन्द्रनन्दिने उसे आगम कहा है और हमने भी इसी सार्थकता को मान देकर इन्द्रनन्दि द्वारा निर्दिष्ट नाम षट्खंडागम स्वीकार किया है । १. जीवट्ठाण - षट्खंडों में प्रथम खंड का नाम 'जीवट्ठाण' है। उसके अन्तर्गत १ सत्, २ संख्या, ३ क्षेत्र, ४ स्पर्शन, ५ काल, ६ अन्तर, ७ भाव और ८ अल्पबहुत्व, ये आठ अनुयोगद्वार तथा १ प्रकृति, समुत्कीर्तना, २ स्थानसमुत्कीर्तना, ३-५ तीन महादण्डक, ६ जघन्य स्थिति, ७ उत्कृष्ट स्थिति, ८ सभ्यक्त्वोत्पत्ति और ९ गति - आगति ये नौ चूलिकाएं है । इस खंड का १ राद्ध-सिद्ध-कृतेभ्योऽन्त आप्तोक्ति: समयागमौ (हमै २, १५६) पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतो दोषसंहतेः । द्योतकः सर्वभावनामाप्तव्याहृतिरागम: । (धवला अ. ७१६) २ ‘भूयसामाचार्याणामुपदेशाद्वा तदवगते:' (१९७) 'किमित्यागमे तत्र तस्य सत्त्वं नोक्तमिति चेन्न, आगमस्यातर्क गोचरत्वात्' (२०६) 'जिणा ण अण्णहावाइणो' (२२१) 'आइरियपरंपराए णिरंतरमागयाणं आइरिएहि पोत्थेसु चडावियाणं असुत्तत्तणविरोहादो' (२२१) 'प्रतिपादकार्षोपलंभात्' (२३९) 'आर्षात्तदवगतेः (२५८) 'प्रवाहरूपेणापौरुषेयत्वतस्तीर्थकृदादयोऽस्य व्याख्यातार एव न कतीर : (३४९) ३ किमित्यागमे तत्र तस्य सत्त्वं नोक्तमिति चेन्न, आगमस्यातर्कगोचरत्वात् (२०६) ४ सुदकेवलं च णाणं दोणि वि सरिणाणि होति बोहादो । सदणाणं तु परोक्खं पञ्चक्खं केवलं णाणं ॥ गो. जी. ३६९.
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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