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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
इन्हीं धनञ्जय का बनाया हुआ नाममाला कोष भी है जिसमें उन्होंने अपने द्विसंधान काव्य को तथा अकलंक के प्रमाण और पूज्यपाद के लक्षण को अपश्चिम कहा है अर्थात् उनके समान फिर कोई नहीं लिख सका ।
इससे यह तो स्पष्ट था कि उक्त कोषकार धनञ्जय, पूज्यपाद और अकलंक के पश्चात् हुए । किन्तु कितने पश्चात् इसका अभी तक निर्णय नहीं होता था । धवला के उल्लेख से प्रमाणित होता है कि धनञ्जय का समय धवला की समाप्ति से अर्थात् शक ७३८ से पूर्व है।
धवला में कुछ ऐसे ग्रंथों के उल्लेख भी पाये जाते हैं जिनके संबंध में अभी तक कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि वे कहां के और किसके बनाये हुए हैं। इस प्रकार का एक उल्लेख जीवसमास का है । यथा, (धवला प. २८९) जीवसमासाए वि उत्तं -
छप्पंचणव-विहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्टाणं । आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥
यह गाथा 'उक्तं च' रूप से सत्प्ररूपणा में भी दो बार आई है और गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी है।
एक जगह धवलाकार ने छेदसूत्र का उल्लेख किया है । यथा - ण च दन्वित्थिणqसयवेदाणं चेलादिचाओ अत्थि छेदसुत्तेण सह विरोहादो।
धवला. अ. ९०७ एक उल्लेख कर्मप्रवाद का भी है । यथा - 'सा कम्मपवादे सवित्थरेण सवित्थरेण परूविदा' (धवला अ. १३७१) जयधवला में एक स्थान पर दशकरणीसंग्रह का उल्लेख आया है । यथा -
शष्ककुचपतितसिकतामुष्टिवदनन्तरसमये निवर्तते कर्मेर्यापथं वीतरागाणामिति। दसकरणीसंगहे पुण पयडिबंधसंभवमेत्तमवेक्खिय वेदणीयस्स वीयरायगुणट्ठाणेसु वि बंधणाकरणमोवट्टणाकरणं च दो वि भणिदाणि त्ति । जयध. अ. १०४२.
इस अवतरण पर से इस ग्रंथ में कर्मों की बन्ध, उदय, संक्रमण आदि दश अवस्थाओं का वर्णन है ऐसा प्रतीत होता है ।
ये थोड़े से ऐसे उल्लेख हैं जो धवला और जयधवलापर एक स्थूल दृष्टि डालने से प्राप्त हुए हैं । हमें विश्वास है कि इन ग्रंथों के सूक्ष्म अवलोकन से जैन धार्मिक और