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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ७९ कर्त्ता अकलंक का सम्मानसूचक उपनाम 'पूज्यपाद भट्टारक' भी था । उनका नाम कलंकदेव तो मिलता ही है । प्रभाचन्द्र भट्टारक - धवलाके वेदनाखंडान्तर्गत नयके निरुपण में ( प ७००) प्रभाचन्द्र भट्टारक द्वारा कहा गया नयका लक्षण उद्धृत किया गया है, जो इस प्रकार है ‘प्रभाचन्द्र - भट्टारकैरप्यभाणि प्रमाण-व्यपाश्रय-परिणाम - विकल्प- वशीकृतार्थविशेष - प्ररूपण - प्रवण: प्रणिधिर्यः स नय इति । ' ठीक यही लक्षण 'प्रमाणव्यपाश्रय' यदि जयधवला (पं. २६) में भी आया है और उसके पश्चात लिखा है ‘अयं नास्य नय: प्रभाचन्द्रो य:' । यह हमारी प्रति की अशुद्धि ज्ञात होती है और इसका ठीक रूप 'अयं वाक्यनय: प्रभाचन्द्रीय:' ऐसा प्रतीत होता है । प्रभाचन्द्रकृत दो प्रौढ़ न्याय-ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं, एक प्रमेयकमलमार्तण्ड और दूसरा न्यायकुमुदचन्द्रोदय । इस दूसरे ग्रंथ का अभी एक ही खंड प्रकाशित हुआ है। इन दोनों ग्रंथों में उक्त लक्षण का पता लगाने का हमने प्रयत्न किया किन्तु वह उनमें नहीं मिला । तब हमने न्या. कु.चं. के सुयोग्य सम्पादक पं. महेन्द्रकुमारजी से भी इसकी खोज करने की प्रार्थना की। किन्तु उन्होंने भी परिश्रम करने के पश्चात् हमें सूचित किया कि बहुत खोज करने पर भी उस लक्षण का पता नहीं लग रहा। इससे प्रतीत होता है कि प्रभाचन्दकृत कोई और भी ग्रंथ रहा है जो अभी तक प्रसिद्धि में नहीं आया और उसी के अन्तर्गत वह लक्षण हो, या इसके कर्ता कोई दूसरे ही प्रभाचन्द्र हुए हों ? धनज्जयकृत अनेकार्थ नाममाला - धवला में 'इति' के अनेक अर्थ बतलाने के लिये 'एत्थ उवजंतओ सिलोगो' अर्थात् इस विषय का एक उपयोगी श्लोक कहकर निम्न श्लोक उद्धृत किया है - तावेंव प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्ययः । प्रादुर्भावे समाप्तं च इति शब्द विदुर्बुधाः ॥ धवला. अ. ३८७ यह श्लोक धनज्जयकृत अनेकार्थ नाममाला का है और वहां वह अपने शुद्ध रूप में इस प्रकार पाया जाता है - तावेवं प्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे समाप्तौ च इति शब्दः प्रकीर्तितः ॥ ३९ ॥
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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