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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
स्वामी समन्तभद्र के जो उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं उनका परिचय हम षट्खंडागम की अन्य टीकाओं के प्रकरण में करा ही आये हैं ।
पूज्यपादकृत सारसंग्रह
धवलाकार ने नय का निरूपण करते हुए एक जगह पूज्यपाद द्वारा सारसंग्रह में दिया हुआ नयका लक्षण उद्धृत किया है । यथा
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सारसंग्रहहेऽप्युक्तं पूज्यपादैः - अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतम-पर्यायाधिग में कर्त्तव्ये जात्यत्वपेक्षों निरवद्यप्रयोगो नय इति । धवला. अ. ७०० वेदनाखंड
पहले अनुमान होता है कि संभव है पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि को ही यहां सारसंग्रह कहा गया हो । किन्तु उपलब्ध सर्वार्थसिद्धि में नयका लक्षण इस प्रकार से नहीं पाया जाता। इससे पता चलता है कि पूज्यपादकृत सारसंग्रह नाम का कोई और ग्रन्थ धवलाकार के सन्मुख था । ग्रंथ के नाम पर से जान पड़ता है कि उसमें सिद्धान्तों का मथितार्थ संग्रह किया गया होगा । संभव है ऐसे ही सुन्दर लक्षणों को दृष्टि में रखकर धनञ्जय ने अपने नाममाला कोष की प्रशस्ति में पूज्यपाद के 'लक्षण' को अपश्चिम अर्थात् बेजोड़ कहा है । यथा -
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
द्विसंधानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥ २०३ ॥
पूज्यपाद भट्टारक अकलंक -
अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थराजवार्तिक का धवलाकार ने खूब उपयोग किया है और, जैसा हम ऊपर कह आये हैं, कहीं शब्दश: और कहीं कुछ हेरफेर के साथ उसके अनेक अवतरण दिये हैं । किन्तु न तो उनके साथ कहीं अकलंक का नाम आया और न 'राजवार्तिकका'। उन अवतरणों को प्राय: 'उक्तं च तत्वार्थभाष्ये' या 'तत्वार्थभाष्यगत' प्रकट किया गया है। धवला में एक स्थान (पं. ७००) पर कहा गया है -
पूज्यपादभट्टारकै रप्यभाणि - सामान्य-नय- लक्षणमिदमेव । तद्यथा, प्रमाणप्रकाशितार्थ - विशेष - प्ररूपको नयः इति ।
इसके आगे 'प्रकषेण मानं प्रमाणम्' आदि उक्त लक्षण की व्याख्या भी दो है । यही लक्षण व व्याख्या तत्वार्थराजवार्तिक, १, ३३, १ में आई है । जयधवला (पत्र २६) में भी यह व्याख्या दी गई है और वहां उसे 'तत्वार्थभाष्यगत' कहा है। 'अयं वाक्यनयः तत्वार्थभाष्यगतः' इससे सिद्ध होता है कि राजवार्तिक का असली प्राचीन नाम 'तत्वार्थभाष्य' है और उसके